चिंता आपराधिक रिकाॅर्ड वालों को ‘लोकमान्यता’ मिलने की है..
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11-08-2021 02:42 PM
देश की सर्वोच्च अदालत ने राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए खुद पर दर्ज आपराधिक मामले सार्वजनिक नहीं करने पर भाजपा व कांग्रेस सहित 9 राजनीतिक दलों पर जुर्माना लगाकर एक संदेश दिया है। लेकिन कोर्ट की इस चेतावनी से देश के उन राजनीतिक दलों, जो अपराधियों को ही जिताऊ’ उम्मीदवार मानने लगे हैं, पर कोई खास असर पड़ेगा, ऐसा नहीं लगता। क्योंकि बीते दो दशकों से राष्ट्रीय स्तर जिस तेजी से अपराधियों को सियासत में स्वीकार किया जा रहा है, वह इस बात का प्रमाण है कि अपराधी और नेता में अब कोई खास फर्क नहीं रह गया है। मुजरिम होना अब कोई शर्म की बात नहीं है, क्योंकि कानून तोड़ने वाला चुनाव जीत कर कभी भी कानून िनर्माता बन सकता है। दुर्भाग्य से चुनाव जीतने में अापराधिक पृष्ठभूमि के ‘डान’, ‘दादा’ या ‘भाई’ जैसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। राजनीतिक दल उन्हें ज्यादा से ज्यादा संख्या में टिकट दे रहे हैं और जनता उन्हें जिता भी रही है। यह बेहद खतरनाक और चिंताजनक संकेत है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में चुनावी उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ दर्ज आपराधिक मामलों का खुलासा नहीं करने पर यह जुर्माना लगाया है। इसके तहत बीजेपी, कांग्रेस और पाँच अन्य दलों पर 1-1 लाख रुपए का जुर्माना तथा पिछले साल के बिहार विधानसभा चुनाव में आदेश का पालन नहीं करने पर सीपीएम और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी पर 5-5 लाख रुपए का जुर्माना लगाया गया है। अदालत ने यह फ़ैसला एक याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया है। याचिका में उन राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह निलंबित करने की माँग की गई थी जो अपने उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि का खुलासा नहीं करते हैं। याचिका में यह मांग भी की गई थी कि उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ दर्ज मामले सार्वजनिक नहीं करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मामला माना जाए।
पिछले साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फ़ैसले में कहा था कि उम्मीदवारों को ये आपराधिक मामलों के जानकारी प्रत्याशी चयन के 48 घंटों के भीतर या नामांकन पत्र दाखिल करने की पहली तारीख़ से कम से कम दो सप्ताह पहले अपलोड करनी होगी। अदालत ने वह फ़ैसला पिछले साल नवंबर में बिहार विधानसभा चुनाव से जुड़े एक मामले में दिया था। इसके तहत कोर्ट ने कहा था कि सभी राजनीतिक दलों को यह बताना होगा कि उन्होंने आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवारों को क्यों चुना और ऐसे उम्मीदवारों के चयन के कारणों के साथ मामलों के विवरण अपनी पार्टी की वेबसाइट पर खुलासा करें। चुनाव आयोग ने भी राजनीतिक दलों को उम्मीदवारों के बारे में यह जानकारी अख़बारों में प्रकाशित करने का निर्देश दिया था। इस आदेश का सही ढंग से पालन नहीं किए जाने का आरोप लगाते हुए याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। इस पर भारत के मुख्य न्यायाधीश एन. वी. रमन्ना, न्यायमूर्ति विनीत सरन और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की बेंच ने कहा कि राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवारों के चयन के 48 घंटों के भीतर आपराधिक रिकॉर्ड सार्वजनिक करना ही होगा। साथ ही सांसदों, विधायकों के ख़िलाफ़ दर्ज आपराधिक मामले हाई कोर्ट की मंजूरी के बिना वापस नहीं लिए जा सकेंगे।
सुप्रीम कोर्ट यह फैसला बेहद अहम है, क्योंकि सरकारें अपनी पार्टी के जनप्रतिनिधियों पर दर्ज आपराधिक मामले वापस लेने की जुगत भिड़ाती रहती हैं। लेकिन अब ऐसा करना आसान नहीं होगा। अमूमन सरकारों का मानना होता है कि सत्ता पक्ष के व्यक्ति का अपराध, अपराध नहीं होता जबकि विपक्ष का हर काम अपराध की श्रेणी में होता है।
राजनीति की ‘सफाई’ के मकसद से दिए गए इस फैसले को सियासी दल अभी भी कितनी गंभीरता से लेंगे, कहना मुश्किल है। क्योंकि लोकतंत्र में चुनाव जीतना ही सत्ता की प्राप्ति का वैध रास्ता है और इस मंजिल को हासिल करने के लिए नेता कुछ भी कर सकते हैं, राजनीतिक दल किसी भी हद तक जा सकते हैं। हम तो यह अपनी आंखों से होते देख रहे हैं। आज हर राजनीतिक पार्टी क्रिमिनल्स को टिकट देने में कोताही नहीं करती, बशर्ते वो चुनाव जीतने का दम रखता हो। चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली संस्था ‘एसोसिएशन फ़ोर डेमोक्रेटिक रिफ़ार्म्स’ यानी एडीआर की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ मोदी कैबिनेट में शामिल 78 मंत्रियों में से 42 फ़ीसदी ने अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले घोषित किए हैं, जिनमें से 4 पर हत्या के प्रयास से जुड़े मामले हैं। एडीआर ने प्रत्याशियों के चुनावी हलफनामों का विश्लेषण करते हुए कहा कि सभी मंत्रियों में से 33 (42 फ़ीसदी) ने अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। लगभग 24 यानी 31 प्रतिशत मंत्रियों ने अपने ख़िलाफ़ दर्ज हत्या, हत्या के प्रयास, डकैती आदि से संबंधित मामलों सहित गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं।
पश्चिम बंगाल के कूचबिहार निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित अौर देश के गृह राज्य मंत्री निशीथ प्रामाणिक ने अपने ख़िलाफ़ हत्या (आईपीसी धारा-302) से संबंधित मामला घोषित किया है। चार मंत्रियों- जॉन बारला, प्रमाणिक, पंकज चौधरी और वी. मुरलीधरन ने हत्या के प्रयास (आईपीसी की धारा-307) से जुड़े मामले घोषित किए हैं। देश में ऐसे मामले लगातार बढ़ ही रहे हैं। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में चुनाव के बाद संसद के निचले सदन ( लोकसभा) के नए सदस्यों में से लगभग 43 प्रतिशत ने आपराधिक आरोपों का सामना करने के बावजूद जीत हासिल की। उनके द्वारा दायर चुनावी हलफ़नामे के अनुसार उनमें से एक चौथाई से अधिक बलात्कार, हत्या या हत्या के प्रयास से संबंधित हैं। एडीआर के ही मुताबिक 2004 के राष्ट्रीय चुनाव में लंबित आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवारों का प्रतिशत 24 प्रतिशत था, जो 2009 में बढ़कर 33 और 2014 में 34 प्रतिशत था जो 2019 में और ज़्यादा बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया।
यानी देश की राजनीति में अपराधियों की भागीदारी लगातार बढ़ रही है और बेदाग नेताअों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है। यह अत्यंत चिंताजनक स्थिति है।
यहां सवाल यह है कि बीते कुछ सालों से अपराधी राजनीति में बड़ी संख्या में क्यों आ रहे हैं? क्यों सियासी दल उन्हें ज्यादा से ज्यादा संख्या में चुनाव टिकट दे रहे हैं? यह जानते हुए कि प्रत्याशी अपराधी चरित्र का है, क्यों ऐसे लोगों को जनता वोट देकर जिता भी रही है, यानी ये अपराधी जनता से ही वैधता कैसे पा रहे हैं? और यह भी कि ऐसी प्रवृत्ति बढ़ती गई तो अंतत: देश में राजनीतिक दलों पर किसका नियंत्रण होगा और संसद और विधानसभा का अर्थ क्या होगा?
राजनीति में अपराधियों की स्वीकार्यता बढ़ने के पीछे कुछ ठोस और बेचैन करने वाले कारण हैं। चूंकि हमारा लोकतंत्र संख्या और बहुमत से निर्धारित होता है, इसलिए राजनीतिक दलों में ऐसे दागदार चेहरो को रोकने की न तो ताकत है और न ही राजनीतिक इच्छाशक्ति है। चुनाव तो सभी को जीतना है, फिर चाहे वो बाहुबल से जीते, धनबल से जीते या फिर किसी और तरह से। क्योंकि उसका जीतना ही सत्ता में आने या जनप्रतिनिधि निर्वाचित होने की गारंटी है। ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं, जिनमें कोई प्रत्याशी सिर्फ इसलिए चुनाव हारा हो क्योंकि उसका आपराधिक रिकाॅर्ड है।
इससे यही ध्वनित होता है कि आपराधिक मामले सार्वजनिक रूप से प्रचारित होने के बाद वोटरों पर उसका खास असर नहीं होता। लोग उसे वोट करते हैं। इसका बड़ा कारण अमूमन प्रशासन तंत्र का पीडि़त की जगह दबंग का पक्ष लेना है। अदालतों में भी बरसों चक्कर काटने के बाद फैसले होते हैं, वो भी गरीब के पक्ष में ही हों, जरूरी नहीं है। ऐसे में असहाय गरीब विवश होकर ‘डाॅन’ की शरण लेता है ताकि जल्दी ‘न्याय’ मिल सके। यह भी विडंबना है कि पब्लिक उसी से इंसाफ की उम्मीद करती है, जो खुद कानून की नजर में मुलजिम है। जब पुलिस, प्रशासन, राजनेता और कुछ तक अदालतें भी पीडि़त को यह आश्वस्त नहीं करतीं कि उसे न्याय मिलेगा तो वह क्या करे, कहां जाए? यानी वास्तव में समाज में आपराधिक तत्वों की बशर्म दबंगई के साथ साथ व्यवस्था से आम आदमी का भरोसा उठ जाने का परिचायक है। आम आदमी को लगता है कि जब वर्तमान हालात में सीधी उंगली से घी निकालने वालों की उंगलियां ही जर्जर हो चुकी हैं, लिहाजा उनका पल्लू पकड़ो, जो हर सिस्टम को पूरी ताकत से टेढ़ी उंगली से या अंगूठा दिखाकर अपनी दुकान चलाते हैं। ऐसे में काहे का सुशासन और काहे का कुशासन। और जब कानून के भंजक ही विधान मंडलो में बैठकर कानून बनाने का काम करें तो दोष किसको दिया जाए? हालांकि इस तरह अपराधिक रिकाॅर्ड वालो को चुनकर ‘लोकतंत्र के मंदिर’ में भेजना ही अपने आप में ईश्वर को धोखा देने जैसा है। वैसे भी भारत में ‘क्रिमिनलाइजेशन’ से तात्पर्य है पुलिस पर राजनीतिक िनयंत्रण, सरकारी खजाने और करप्शन पर जनप्रतिनिधियो का िनयंत्रण। यही रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमे किसी अपराधी को ही प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री चुनना पड़े।
वरिष्ठ संपादक,अजय बोकिल ये लेखक के अपने विचार है I
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