आज जगत जननी माता सीता के अवतरण दिवस पर अचानक राम के चरित्र का वो प्रसंग याद आ गया जिसने राम के भगवान होने पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया। प्रसंग है सीता का निर्वासन। सीता का निर्वासन क्या सच था या फिर भ्रम है, इसका जवाब भी राम का चरित्र ही देता है। बस उसे समझने की आवश्यकता है फिर निर्वासन के सच और भ्रम से पर्दा उठ जाएगा। रामायण में अनेक ऐसे प्रसंग है जिनमे निर्वासित महिलाओ का भी राम ने सम्मान कर उनके जीवन को सुवासित प्रदान किया है। फिर वो कैसे अपनी पत्नी को निर्वासित कर सकते है। निर्वासित अहिल्या के चरण स्पर्श कर राम ने ये यह घोषणा कर दी थी कि जब इंद्र पाप मुक्त है तो माता अहिल्या भी पाप मुक्त है। जीवन पर्यंत अछूत समझी गई शबरी के जूठे बेर खाकर राम ने उसे पूजनीय बना दिया। बाली का वध राम ने इसलिए किया था कि उसने अपने सगे भाई की पत्नी रूमा को अपने अधिकार में ले लिया था। जिसके लिए चौदह वर्ष तक वनवास के लिए अड़ी रही, उसी राम ने कैकई को देखते ही कौशल्या को छोड़ कर पहले चरण स्पर्श किए। ऐसे अनेक प्रसंग है जिनमे राम ने उन महिलाओ को फिर से यश प्रदान किया जिनके प्रति समाज में किन्ही न किन्ही कारण से अपयश फेल गया था। जिस सीता को राम यह कहते है कि वैदेही, तुम्हारे बिना वन तो क्या स्वर्ग भी मेरे लिए अधूरा है, उस सीता का क्या राम कभी त्याग कर सकते है। राम तो वो शख्सियत है जिन्होंने पत्नी पर चले सार्वजनिक अपमान के तीर को अपनी छाती पर ले लिया और अब तक उसे झेल रहे है। एक धोबी के द्वारा सीता के चरित्र पर उठाया गया प्रश्न काल्पनिक सा लगता है लेकिन इसे सही भी मान ले तो भी यह बात राम के बारे में अपयश फैलाने के कुत्सित प्रयास के अलावा कुछ भी नही। धोबी के आरोप को सच्चा मान भी ले तो राम तो अयोध्या के राजा थे और कोई राजमाता के चरित्र पर अंगुली उठाए तो उसे मौत की सजा दे सकते थे। फिर राम ने ऐसा क्यों नही किया, सीता का परित्याग क्यों किया?? क्योंकि राम यह जानते थे कि व्यक्ति को मारा जा सकता है, लेकिन विचार को नही मारा जा सकता। धोबी को फांसी पर लटकवा देते तो फिर ऐसे अनेक सवाल उठ जाते कि राजा ने धोबी को मरवा दिया, इसका मतलब दाल में कुछ तो काला है। फिर एक नही, ऐसे अनेक सवालों के बाण सीता की और दागे जाते। लेकिन राम ने ऐसा नही होने दिया और इन सब तीरों को अपनी छाती पर झेल कर सीता के लिए ढाल बन गए। राम ने कभी अपनी सीता का त्याग नही किया। त्याग का मतलब होता है किसी वस्तु के प्रति मोह भंग हो जना, उसे फिर से पाने की इच्छा ही नही होना, हमेशा के लिए छोड़ देना। यदि इस प्रसंग को किंवदंती भी मान ले तो राम ने तो सीता को अपमान से बचाने के लिए बलिदान किया था। बलिदान का मतलब है अपनो के हित में स्वयं की खुशी का त्याग करना, अपनी इच्छा को दिल में दबा कर दूसरों की खुशी के लिए किया गया कर्म। आज भी न जाने कितने ही गीत, भजन और कविताएं ऐसी रच दी गई जिनमे यह सवाल खड़ा कर दिया जाता है कि राम तो भगवान थे फिर उन्होंने एक व्यक्ति के कहने से सीता का त्याग क्यों कर दिया, क्या वो जानते नही थे। अपने पुत्र, भाई, पिता, मित्र पर भरोसा रखने वालो को अपने राम पर भी भरोसा होना चाहिए। राम ने सबकी सुनी लेकिन राम की कौन सुने जो जनमानस में अब तक इस अपयश को झेल रहे है। मेरा निवेदन है कथाकारों से, उन धर्माधिकारियों से कि वो व्यास पीठ से इस काल्पनिक कथा से पर्दा उठा कर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र पर लगा दिए गए इस अपयश के दाग को धोने का काम करे।
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