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हैप्पी दीवाली के बहाने अपनी भाषा और राष्ट्रीय अस्मिता की बात

Updated on 18-10-2022 12:25 PM
त्योहारों का मौसम है, वातावरण मे रिश्तों की गर्मजोशी फैली हुई है, घरों की सफाई हो रही है, दूर रहने वाले घर लौटने की तैयारी कर रहे है, सबकी पसंद के पकवानों की सूची बनाई जा रही है, फिजाँ में एक मिठास सी घुली महसूस हो रही है, सब कुछ बड़ा भला भला सा लग रहा है। इस त्यौहारी मौसम का सबसे बड़ा त्योहार दीपावली दहलीज पर खड़ा है। इसके आने का इंतजार पूरे साल शिद्दत से किया जाता है। यह त्योहार हम सभी सम्पूर्ण उत्साह और उमंग के साथ मनाते हैं । 
इस दिन हम सभी एक दूसरे को शुभकामना देते हुए “हैप्पी दिवाली” बोलते हैं, सोशल मीडिया, वाट्सएप और संवाद के अन्य माध्यम  “हैप्पी दीवाली” के संदेशों से पट जाते है। उत्साह और खुशी से भरे सदेशों की इस भीड़ में कभी कभार "शुभ-दीपावली" शब्द भी देखने, पढ़ने और सुनने को मिल जाता है। प्रभु श्रीराम द्वारा रावण वध और लंका विजय पश्चात माता सीता संग अयोध्या लौट कर आने की खुशी में मनाया जाने वाला हमारा यह सनातन त्योहार “शुभ-दीपावली”, कब और कैसे “हैप्पी-दीवाली” में बदल गया हमें पता ही नहीं चला।
किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्र पहचान के साथ एक विशिष्ट भाषा भी जुड़ी होती है जो राष्ट्रीय एकता का मूलाधार होती है। भाषा एक राष्ट्र की जीवन शैली, आचार-विचार, सामाजिक-धार्मिक प्रवृत्तियों, सांस्कृतिक एकता तथा देशवासियों की चित्तवृत्तियों का परिचायक होती है। 1947 में स्वतन्त्रता मिलने के बाद भारत जैसे विशाल देश में, जहां विविध भाषाएं बोली जाती हैं, वहाँ निर्विवाद रूप से एक ऐसी भाषा का चयन जिसे राजभाषा का दर्जा देकर देश की स्वतंत्र पहचान से जोड़ा जाए एक दुष्कर कार्य था। स्वतन्त्रता के समय हमारा सारा राज काज अँग्रेजी या उर्दू मिश्रीत अँग्रेजी में होता था अत: उस समय के उच्च अधिकारियों का स्वाभाविक मत था कि स्वतंत्र भारत में भी अँग्रेजी को ही राज-भाषा रहने दिया जाय। लेकिन हमारे तत्कालीन राजनीतीक और सामाजिक नेतृत्व को अँग्रेजी भाषा दासता या गुलामी का प्रतीक लगी और यह विचार सिरे से खारिज कर दिया गया। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी की खड़ी बोली या देवनागरी ही भारत की राजभाषा होगी। 
हमारी संस्कृति में भाषा को माँ का दर्जा दिया गया है। महात्मा गांधी ने कहा था कि व्यक्ति के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा का ज्ञान उतना ही आवश्यक है जितना कि एक शिशु के विकास के लिए माता का दूध। भाषा का सीधा संबंध संस्कार और सभ्यता से है और हिन्दी हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। आजादी मिलने के 75 वर्षों बाद यह देखने में आ रहा है कि अपनी माँ समान भाषा के प्रति हम लोगों का नजरिया और रवैया दोनों ही बेहद सामान्य और चलताऊ किस्म का हो गया है। 
हमारी भाषा सामाजिक ताने बाने का धागा है और राष्ट्रीय एकजुटता की इमारत की ईंट है। यह सत्य है कि एक ईंट निकालने से इमारत नहीं हिलती और एक धागा खींचने से वस्त्र नहीं उधड़ता। लेकिन यदि भारत की राष्ट्रीय एकता की इस बुलंद इमारत की ईंटों को एक एक कर निकाला जाएगा और भारतमाता के लहलहाते आँचल का एक एक धागा धीरे धीरे खींचा जाएगा तो शनै: शनै: भारत नाम का यह मजबूत किला एक ना एक दिन ढह ही जाएगा। हम अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने त्योहारों, अपने रीती रिवाजो और अपनी परम्पराओ पर गर्व करने की बजाय एक मूक दर्शक की तरह उदासीन भाव से उनका निरादर होते देखते रहते है। हमारे विद्यालय बच्चों को सिखाते है “शेक हैंड एंड से हैप्पी दीवाली”। हमें अपने बच्चों को शिक्षा देना चाहिए कि बड़ों के चरण स्पर्श करो और “शुभ-दीपावली” कहो, अपने दोस्तों को गले लगाओ और शुभ दीपावली बोलो, परिचितों को हाथ जोड़कर नमस्कार करो और शुभ दीपावली बोलो।
लेकिन यह सब ना कर, शायद पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव और समय की कमी के दबाव के चलते शार्टकट अपनाकर हम ना केवल अपनी गौरवशाली परंपरा से कट रहे हैं बल्कि अर्थ का अनर्थ भी कर रहे हैं।
दीपावली के प्रसंग में हम बिना विचारे शुभ के स्थान पर हैप्पी बोलने लगे हैं। वस्तुत: शुभ लोक मंगल का शब्द है जबकि हैप्पी या आनंद निजता का शब्द है। दीपावली निजी ना होकर लोक मंगल का पर्व है। तो यहां शुभ दीपावली कहना ही उचित है ना कि हैप्पी दीवाली। जब हम शुभ की बात करेंगे तो हैप्पी तो बिना कहे ही हो जाएंगे।
अरे यार क्या फर्क पड़ता है, इतनी गहराई में मत जाओ, 
इतना सर कौन खपाए या जाने भी दो यारों के इस तटस्थ और उदासीन भाव के साथ हम अपने सांस्कृतिक वैभव को बिसरा रहे हैं जिसका परिणाम हमारी भावी पीढ़ी भोगेगी। भारतीयता का भाव हमारे स्वाभिमान का प्रतीक है और यह प्रतीक एक एक शब्द को जोड़कर गढ़ा जाता है। दीपावली के इस महापर्व पर यह संकल्प लेना जरूरी है कि हम निजता से परे जाकर लोकमंगल की बात करेंगे। भगवान श्रीराम लोक मंगल के अधिष्ठाता हैं और हम उनके वंशज पूरे विश्व का शुभ चाहते हैं इसलिए बार बार, हर बार दीपावली शुभ हो कहना ही उचित है।
यह अंग्रेजी के खिलाफ जाने या हिंदी के समर्थन में आने की बात नहीं है, यह हमारे पर्व मनाने के भाव को प्रसारित करने की बात है। बेमेल भाषाई रूपांतरण के कारण “हैप्पी दीवाली” और “शुभ दीपावली” के बीच पसरा यह वृहद सास्कृतिक अंतर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। एक स्वतंत्र और मजबूत राष्ट्र के रूप में अपना त्योहार अपनी भाषा में मनाने के भाव का महत्व भी अपनी जगह है ही। अब “हैप्पी दीवाली” को टाटा बाय बाय करके हम सभी कहेंगे “शुभ दीपावली” । जय जय।  
- राजकुमार जैन ,लेखक,(स्वतंत्र विचारक)

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