भारत में लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी के फिर से PM बनने पर ताइवान के राष्ट्रपति लाइ चिंग ते ने बधाई दी थी। इसके बाद चीन ने इस पर आपत्ति जताई थी। अब ताइवान ने इस पर पलटवार किया है। ताइवान के उप विदेश मंत्री टीएन चुंग-क्वांग ने कहा कि मुझे लगता है कि न तो मोदी जी और न ही हमारे राष्ट्रपति चीन से डरने वाले हैं।
दरअसल भारत और ताइवान के बीच मजबूत संबंधों की बात पर चीन की आलोचना के बारे में ताइवानी उप विदेश मंत्री से सवाल पूछा गया था। इस पर उन्होंने ये बात कही। ताइवान के विदेश मंत्रालय ने कहा कि दोनों नेताओं (भारत के PM और ताइवान के राष्ट्रपति) के बीच सौहार्दपूर्ण बातचीत पर चीन का नाराज होना बिल्कुल गलत है।
ताइवाने विदेश मंत्रालय ने कहा कि धमकी देने से मित्रता नहीं बढ़ती। ताइवान, भारत के साथ साझेदारी बढ़ाने पर जोर दे रहा है। दोनों देशों के संबंध परस्पर लाभ और साझा मूल्यों पर आधारित हैं।
ताइवान के राष्ट्रपति की बधाई पर PM मोदी का जवाब
पिछले महीने राष्ट्रपति पद की शपथ लेने वाले ताइवान के राष्ट्रपति लाई चिंग ते ने 7 जून को एक पोस्ट में पीएम नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव 2024 में उनकी जीत पर बधाई दी थी।
उन्होंने एक पोस्ट में लिखा था कि भारत-ताइवान आपसी साझेदारी, व्यापार, टेक्नोलॉजी और अन्य क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने के लिए तैयार है ताकि इंडो पैसिफिक में शांति बन सके।
इसके बाद PM मोदी ने अपने जवाब में लिखा था, 'भारत ताइवान के साथ घनिष्ठ संबंध बनाने के लिए तैयार है।' मोदी के इस कमेंट से चीन भड़क गया था। इसके बाद चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने भारत को चेतावनी दी थी कि वो ताइवान से दूर रहे।
माओ निंग ने कहा था कि दुनिया में सिर्फ एक चीन है और ताइवान चीन का ही एक हिस्सा है। चीन ताइवान को अलग देश मानकर उससे रिश्ते रखने वाले देशों का विरोध करता है।
चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता ने कहा कि दुनिया एक चीन के सिद्धांत को मानती है। इसी आधार पर वह दुनियाभर देशों के साथ संबंध बनाता है। भारत भी उन देशों में है जो वन चाइना पॉलिसी का समर्थन करता है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी को ताइवान के राष्ट्रपति की बधाई का विरोध करना चाहिए।
ताइवान को लेकर क्या रहा है भारत का स्टैंड…
सीनियर जर्नलिस्ट पलकी शर्मा के मुताबिक दिसम्बर 1949 में भारत चीन को मान्यता देने वाले पहले एशियाई देशों में से एक रहा। इसके बाद 45 सालों तक भारत और ताइवान के बीच कोई औपचारिक सम्पर्क नहीं रहा। दोनों देशों के बीच गतिरोध की स्थिति बनी रही। ताईवान का रवैया भी भारत को लेकर बहुत पॉजिटिव नहीं था।
ताइवान अपनी वन-चाइना नीति पर अड़ा रहा, जिसमें ताइपे सत्ता का केंद्र था। तिब्बत और मैकमोहन लाइन पर उसकी पोजिशन ठीक वही थी, जो चीन की थी। उसके अमेरिका से गहरे सम्बंध थे, लेकिन भारत जैसे देशों में उसकी अधिक रुचि नहीं थी।
लेकिन, 1990 के दशक में भारत की विदेश नीति बदली। उसने लुक-ईस्ट नीति अपनाई, जिसके चलते ताइवान से रिश्ते बढ़ाने की कोशिश की और ताइवान ने भी अच्छी प्रतिक्रिया दी। 1995 में अनधिकृत दूतावासों की स्थापना की गई। 21वीं सदी की शुरुआत तक भारत के चीन से सम्बंध अपने सबसे अच्छे दौर में प्रवेश कर चुके थे।
प्रधानमंत्री वाजपेयी चीन की सफल यात्रा करके लौटे थे। भारत की प्राथमिकताएं एक बार फिर ताइवान से दूर खिसक गईं। 2008 के बाद कुछ छिटपुट कोशिशें की गईं, जब ताइवानी मंत्रियों ने भारत की यात्रा की थी, लेकिन यह भारत को जानने-समझने तक ही सीमित थी। बड़ा बूस्ट 2014 में तब आया, जब प्रधानमंत्री मोदी ने ताइवानी प्रतिनिधियों को अपने शपथ-ग्रहण समारोह में बुलाया।
ताइवान को लेकर मोदी के मन में एक राजनीतिक धारणा थी और अतीत में भी वे ताईवान से रिश्ते कायम कर चुके थे। 1999 में मोदी ने भाजपा महासचिव के रूप में ताइवान की यात्रा की थी। 2011 में गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने भारत में ताइवान के सबसे बड़े प्रतिनिधिमंडल की मेजबानी की थी। प्रधानमंत्री के रूप में भी उन्होंने ताइवान से सम्बंध बनाए रखे। हालांकि, भारत ने ताइवान को अलग देश के रूप में मान्यता नहीं दी है।
चीन - ताइवान के बीच विवाद क्यों?
चीन ताइवान को अपना ही हिस्सा मानता है। जबकि ताइवान खुद को एक स्वतंत्र देश मानता है। चीन इसलिए ताइवान पर कब्जा करना चाहता है। ऐसा करके चीन पश्चिमी प्रशांत महासागर इलाके में अपना दबदबा दिखाने के लिए आजाद हो जाएगा। इससे गुआम और हवाई जैसे अमेरिकी मिलिट्री बेस के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।