2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव प्रत्येक राजनीतिक दल के एजेंडा में सबसे ऊपर आ गए हैं और चुनावी चंदा हर दल के लिए इसमें संजीवनी बूटी का काम करता है। लेकिन हाल ही देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है वह लोकतंत्र की मजबूती के लिए एक अहम फैसला माना जा सकता है। लोकसभा चुनाव से ऐन पहले सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड को लाने के लिए कानूनों में किए गए बदलावों को असंवैधानिक ही नहीं घोषित किया है, इन प्रावधानों के असर को काटने वाले उपायों के साथ समय सीमा भी जोड़ कर राजनीति में पारदर्शिता और लोकतंत्र में जनता के सूचना के अधिकार की अहमियत भी रेखांकित की है। सुप्रीम कोर्ट ने बैंक को आदेश दिया कि वो तत्काल चुनावी बांड जारी करना बंद कर दे। सर्वोच्च न्यायालय ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर फैसला सुनाते हुए इस बॉन्ड को असंवैधानिक करार दे दिया। चुनावी साल में सरकार को यह बड़ा झटका लगा है। कोर्ट ने कहा कि कि जनता को सूचना का अधिकार है साथ ही निर्देश दिए कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया साल 2023 के अप्रैल महीने से लेकर अब तक की सारी जानकारियां चुनाव आयोग को दे और आयोग ये जानकारी कोर्ट को दे। कोर्ट ने कहा कि काले धन को रोकने के लिए दूसरे रास्ते भी हैं।
इस मामले में सुनवाई कर रहे सभी जजों ने सर्वसम्मति से अपना फैसला सुनाया है। केंद्र सरकार की चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने के लिए केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने 2018 में लागू की गई चुनावी बॉन्ड योजना की कानूनी वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डी.वाय. चंद्रचूड़ का कहना है कि दो अलग-अलग फैसले हैं, एक उनके द्वारा लिखा गया और दूसरा न्यायमूर्ति संजीव खन्ना द्वारा और दोनों फैसले सर्वसम्मत हैं। कोर्ट ने आगे कहा, चुनावी बॉन्ड योजना, अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है। कोर्ट ने इसे असंवैधानिक माना है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक करार देते हुए इसे रद्द करना होगा। साथ ही चुनावी बॉन्ड के माध्यम से कॉर्पोरेट योगदानकर्ताओं के बारे में जानकारी का खुलासा किया जाना चाहिए क्योंकि कंपनियों द्वारा दान पूरी तरह से बदले के उद्देश्य से है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि राजनीतिक दल चुनावी प्रक्रिया में प्रासंगिक इकाइयां हैं और चुनावी विकल्पों के लिए राजनीतिक दलों की फंडिंग के बारे में जानकारी आवश्यक है।
चुनावी बॉन्ड योजना की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर याचिकाकर्ता जया ठाकुर ने कहा है कि अदालत ने कहा कि राजनीतिक पार्टियों को कितना पैसा और कौन लोग देते हैं इसका खुलासा होना चाहिए। 2018 में जब यह चुनावी बॉन्ड योजना प्रस्तावित की गई थी तो इस योजना में कहा गया था कि आप बैंक से बॉन्ड खरीद सकते हैं और पैसा पार्टी को दे सकते हैं जो आप देना चाहते हैं लेकिन आपका नाम उजागर नहीं किया जाएगा, जो कि सूचना के अधिकार के खिलाफ है।
याचिकाकर्ताओं के अनुसार, चुनावी बॉन्ड से जुड़ी राजनीतिक फंडिंग पारदर्शिता को प्रभावित करती है और मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है। याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि इस योजना में शेल कंपनियों के माध्यम से योगदान करने की अनुमति दी गई है, और ये इस योजना का सबसे बड़ा झोल है, क्योंकि इसी के माध्यम से सत्ता में कारपोरेट का अनावश्यक दखल बढ़ता दिख रहा है।
हालांकि केंद्र सरकार ने इस योजना का बचाव करते हुए कहा कि धन का उपयोग उचित बैंकिंग चैनलों के माध्यम से राजनीतिक वित्त पोषण के लिए किया जा रहा है। सरकार ने आगे तर्क दिया कि दानदाताओं की पहचान गोपनीय रखना जरूरी है, ताकि उन्हें राजनीतिक दलों से किसी प्रतिशोध का सामना न करना पड़े। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने लोकतंत्र को आधार मानते हुए सरकार की दलीलों को नहीं माना। कुल मिलाकर देखा जाए तो आरोप-प्रत्यारोप से अलग, इस फैसले ने उन शिकायतों को दूर किया है, जिनसे कुछ लोगों के मुताबिक चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता प्रभावित हो रही थी। इस लिहाज से इस फैसले ने लोकतंत्र की विश्वसनीयता को बढ़ाया है इसलिए इसका स्वागत हरहाल में किया जाना चाहिए।
अगर विपक्षी दल इस फैसले से अति उत्साहित दिख रहे हैं तो उसका अपना कारण है। उन्हें यह महसूस हो रहा था कि चुनावी बॉन्ड स्कीम फंड के फ्लो को सत्ताधारी पार्टी की तरफ मोडऩे और उनके स्रोतों को सुखा देने के कथित मकसद से प्रेरित है। उनका यह भी कहना है कि इसी वजह से सरकार ने रिजर्व बैंक और चुनाव आयोग की राय की अनदेखी की। 2017 में रिजर्व बैंक ने आगाह किया था कि शेल कंपनियां चुनावी बॉन्ड का दुरुपयोग मनी लॉन्ड्रिंग के लिए कर सकती हैं। 2019 में चुनाव आयोग ने भी इस स्कीम को चंदों में पारदर्शिता के लिहाज से पीछे ले जाने वाला कदम बताया था।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एक बार फिर स्थापित किया है कि लोकतंत्र में सभी दलों को लेवल प्लेइंग फील्ड सुनिश्चित करना जरूरी है।
फैसले के मुताबिक 12 अप्रैल 2019 के बाद चुनावी बॉन्डों के जरिए आए चंदे से जुड़े सारे डीटेल्स 13 मार्च 2024 तक चुनाव आयोग की वेबसाइट पर सार्वजनिक करने होंगे। यानी अप्रैल-मई में संभावित चुनावों में राजनीतिक दलों की प्रचार शैली पर भी इस फैसले का कुछ न कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष असर हो सकता है। इस फैसले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इससे चुनाव सुधार के मार्गदर्शक सिद्धांतों को एक बार फिर स्पष्ट कर दिया गया है।
और यह भी .....
चुनावी बॉन्ड स्कीम के पक्ष में एक दलील यह भी थी कि इससे राजनीतिक दलों को कैश में चंदा देने की प्रवृत्ति कमजोर होगी। इस लिहाज से सुप्रीम कोर्ट का फैसले में यह कहना उल्लेखनीय है कि मूल बात पारदर्शिता है और नागरिकों को पता होना चाहिए कि राजनीतिक दलों को कौन पैसा दे रहा है और तभी यह भी पता चल सकेगा कि चंदे के बदले कारपोरेट या अन्य समूह सरकार पर कितना दबाव बना रहे हैंऔर आम जनता पर उसके कैसे दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं।
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