आज से कुछ वर्षों पूर्व तक श्री खाटू श्यामजी का नाम केवल राजस्थान में ही जाना जाता था। मगर इधर कुछ वर्षों से खाटू श्यामजी का प्रचार इतना अधिक बढ़ गया है कि केवल भारत में ही नहीं, अपितु समूचे विश्व में न केवल इन्हें जाना जाता है कि बल्कि अनेक परिवार खाटू श्यामजी के चमत्कारों को अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देख चुके हैं। राजस्थान के सीकर जिले में रिंगस कस्बे से 18 किलोमीटर की दूरी पर श्री खाटू श्यामजी का मन्दिर स्थिति है। जहाँ प्रभु के दर्शन मात्र से ही जीवन में खुशियों एवं सुख-शांति के भंडार भर जाते हैं। श्री खाटू श्यामजी की पौराणिक प्रचलित पावन कथा संक्षिप्त में इस प्रकार है : महाभारत युद्ध के लिए कौरव-पांडव दलों के विशाल शिविर आमने-सामने थे। शिविरों में दूसरे दिन शुरू होने वाले युद्ध की हलचल मची थी। युद्ध नीति के अनुसार सूर्यास्त पश्चात् दोनों पक्षों के लोग आपस में मिल-जुल सकते थे, अतः धर्मयुद्ध के इन शिविरों में भी सैनिक आपस में मिल-जुल रहे थे। शिविरों के बीच की भूमि वीरों के आवागमन से भरी हुई थी। तभी सुसज्जित रथ पर एक तेजस्वी योद्धा आया। पीपल वृक्ष के नीचे उसने अपना रथ रोका। घोड़ों को खोलकर चरने के लिए छोड़ दिया। शिरस्त्राण (शस्त्र आदि) उतारकर जलपान किया और अपने रथ पर विश्राम करने के लिए बैठ गया। उसे दोनों दलों के वीरों ने घेर लिया। सभी का एक ही प्रश्न था- ‘आप किस ओर से युद्ध करेंगे ?’ ‘किसी भी दल की ओर से नहीं। अभी तो मैं एक दर्शक की भांति इस महायुद्ध को देखने आया हूं, बाद में मैं उस दल की ओर से युद्ध करूंगा जो पराजित होगा या जिसके साथ अन्याय हुआ होगा।’ सब विस्मय ये उसे ही देख रहे थे। उपस्थित लोगों में से एक ने पूछा- ‘लेकिन आपकी सेना कहां है ? क्या आपकी सेना पीछे आ रही है ?’ ‘नहीं, मुझे सेना की आवश्यकता नहीं है। मैं बिना सेना के ही आया हूं।’ बर्बरीक ने गर्व से कहा। ‘तब आप पराजित दल की सहायता कैसे करेंगे?’ आगन्तुक महाबली मुस्कराया- ‘मुझे सेना की आवश्यकता ही नहीं है। मुझे अपने इस धनुष और इन तीन बाणों पर असमी विश्वास है। मैं एक ही बाण से शत्रु- सेना का संहार कर सकता हूँ, छूटने पर मेरा पहला बाण हर व्यक्ति के मृत्यु स्थल पर निशान लगा देगा और दूसरा बाण उन्हें बींध देगा।’ ‘आपका नाम ?’ बहुत से लोगों ने विस्मय से पूछा। ‘मैं भीमसेन का पौत्र, घटोत्कच का पुत्र महाबल बर्बरीक हूं।’ आंधी की तरह कुछ ही क्षणों में यह बात दोनों शिविरों में फैल गई। हर किसी पर बर्बरीक का ही नाम गूंज रहा था। सैनिक लोग बात की गहराई तक नहीं पहुंच रहे थे, पर बात की गम्भीरता को समझने वाले योद्धा चिन्तित हो उठे। भगवान श्रीकृष्ण सोच-विचार करने लगे कि यदि वास्तव में ही वह वीर निर्बल पक्ष का साथ देगा तो पाण्डवों की विजय होते ही कौरव निर्बल हो जाएंगे। फिर वह वीर उनकी ओर से लड़कर पाण्डवों की विजय को पराजय में बदल देगा। क्या वह वास्तव में ही ऐसा विलक्षण धनुर्धर है, जो दो बाणों से ही शत्रु सेना का संहार कर सकता है ? चलकर परीक्षा ली जाए।
वह उठे और बर्बरीक के पास पहुंचे। उन्हें आता देख सभी सैनिक गण इधर-उधर हट गए। बर्बरीक ने श्रीकृष्ण का अभिवादन किया। दोनों में परिचय हुआ। श्रीकृष्ण ने कूटनीति का आश्रय लेते हुए पूछा-‘तुम इन तीन बाणों के द्वारा सारी सेना का संहार कैसे कर सकते हो ?’ बर्बरीक ने गर्व से अपना सिर ऊपर उठाया, धनुष पर एक बाण चढ़ाकर कहा-‘देखिए, मैं इस प्रकार समस्त शत्रु-सेना का संहार कर सकता हूं। आप इस पीपल के पेड़ को देख रहे हैं। मेरा यह बाण इसके समस्त पत्तों को चिह्न लगा आएगा और दूसरा बाण उन्हें बींध देगा। आप चाहें तो मैं धरती पर बिखरे इन सूखे पत्तों को भी बींध सकता हूं।’ श्रीकृष्ण यह दृश्य देखने को उत्सुक थे। उन्होंने दो पत्ते तोड़ लिए। एक को हाथ की मुट्ठी में बन्द कर लिया और दूसरे पांव के नीचे दबा लिया। बर्बरीक ने अभिमन्त्रित करके बाण छोड़ा। सभी ने देखा कि पेड़ और धरती का प्रत्येक पत्ता चिन्हित था। श्रीकृष्ण ने मुट्ठी खोली तो हाथ का पत्ता भी चिन्हित था और पांव के नीचे का पत्ता भी। श्रीकृष्ण अत्यधिक विस्मित थे। तब तक बर्बरीक ने दूसरा बाण छोड़ा। प्रत्येक पत्ता बीच में से बिंधा हुआ था। श्रीकृष्ण अकुला उठे और गहरी सोच में पड़ गए कि किस प्रकार से युद्ध में भाग लेने से रोका जाए। आखिर बहुत सोच-विचार के बाद उन्हें एक हल सूझ ही गया। प्रातःकाल वह उठे और याचक का रूप बर्बरीक के पास पहुंचे। वह संध्यावन्दन कर रहे थे। संध्यावन्दन के उपरांत बर्बरीक ने याचक से कहा- ‘आज्ञा करो ब्राह्मण देवता, क्या इच्छा है ?’ ‘कुछ दान पाने की इच्छा है महाराज!’ ब्राह्मण रूपधारी श्रीकृष्ण ने कहा। ‘यहां तो मेरे पास विशेष धन नहीं है, परदेश में हूं। ये बहुमूल्य वस्त्राभूषण हैं, इनकी इच्छा हो तो कहो। मेरे पास में जो कुछ भी होगा, वह मैं तुम्हें दान में अवश्य दूंगा।’ ‘वस्तु तो वही मांगूगा जो आपके वश में है।’ ‘तब मुझे कोई इंकार नहीं, चाहे तुम मेरे प्राण मांग लो।’ ‘प्राण! इतना दम्भ अच्छा नहीं है, महाबली।’ ‘कह तो दिया।’ ‘अच्छा, ऐसा है तो मुझे अपना शीश काटकर दे दीजिए।’
बर्बरीक यह सुनकर सिहर उठे। इतना कठोर दान भी कहीं मांगा जा सकता है। उन्होंने क्रोध को दबाकर कहा- ‘मुझे विश्वास ही नहीं होता कि तुम ब्राह्मण याचक हो। तुमने दान प्रथा को कलंकित किया हे। तुम अवश्य ही कोई कूटनीज्ञि हो। जो वचन मैंने दिया है, उसे मैं अवश्य पूरा करूंगा। किन्तु अब तुम यह बता दो कि वास्तव में तुम हो कौन ?’ श्रीकृष्ण ने अपना रूप बदलते हुए कहा- ‘मैं श्रीकृष्ण हूं बर्बरीक! मैं नहीं चाहता कि तुम इस महायुद्ध में भाग लो और तुम्हारे कारण दोनों पक्षों को विनाश हो जाए।’ ‘मैं अपने वचन को पूरा करूंगा, परन्तु मेरी इच्छा मेरे साथ ही मिट जाएगी।’ ‘निःसंकोच कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है?’ ‘मैं। इस महायुद्ध की अच्छी तरह देखना चाहता हूं। सृष्टि के सभी महारथी इसमें सम्मिलित हुए हैं। मैं देखना चाहता हूँ कि कौन कितना बली है।’ ‘तुम्हारी यह इच्छा अवश्य पूरी होगी।’