शरद पवार: राजनीति के ‘नटसम्राट’ और उनके मुहावरों के सियासी मायने
Updated on
08-05-2023 05:00 AM
सार -
इस पटकथा का आरंभ भी पवार ने किया था और अंत भी उन्होंने किया। यह अलग बात है कि यह अंत उनके महत्वाकांक्षी भतीजे अजित पवार के लिए ‘शोकांतिका’ की तरह रहा। एक और अहम बात यह रही कि पवार ने भारतीय राजनीति को कुछ नए मुहावरे दिए, जो लंबे समय तक चलेंगे।
विस्तार
महाराष्ट्र की राजनीति में दिग्गज नेता शरद पवार के इस्तीफे और तीन दिन बाद उसे वापस लेने के प्रहसन के बाद किसी ने मराठी में कटाक्ष करते हुए पवार को भारतीय राजनीति का ‘नटसम्राट’ कहा। खास बात यह थी कि इस तीन दिनी प्रहसन की पटकथा भी शरद पवार ने ही लिखी थी और वो ही इस एपीसोड के निर्देशक, हीरो भी थे। ऐसा हीरो जिसने पटकथा के विलेन को बिना वार के ही रिंग से बाहर कर दिया।
इस पटकथा का आरंभ भी पवार ने किया था और अंत भी उन्होंने किया। यह अलग बात है कि यह अंत उनके महत्वाकांक्षी भतीजे अजित पवार के लिए ‘शोकांतिका’ की तरह रहा। एक और अहम बात यह रही कि पवार ने भारतीय राजनीति को कुछ नए मुहावरे दिए, जो लंबे समय तक चलेंगे।
शरद पवार, उनकी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस और उनकी विचारधारा क्या है? इन सवालों का एक ही जवाब है अवसरवादी राष्ट्रवाद। पवार और उनकी पार्टी की कभी किसी से दुश्मनी नहीं रही और दोस्ती उन्होंने अपने लाभों के हिसाब से की। वो कब कहां, किस पाले में, किन तर्को के आधार पर चले जाएंगे या हट जाएंगे, यह केवल पवार ही जानते हैं। वर्तमान में उन्हें भाजपा से दूरी बनाए रखने और विपक्षी खेमे में बने रहने में ज्यादा लाभ दिख रहा है। बल्कि यह कहें कि भाजपा जैसी सहयोगियों को ‘खा जाने वाली’ पार्टी से वो अपने दल को किसी भी कीमत पर बचाए रखना चाहते हैं। यही उन्होंने किया भी।
इस्तीफे की घोषणा और राजनीतिक भूचाल
शरद पवार आज शायद देश के उन सबसे बुजुर्ग नेताओं में से हैं, जो सियासत में 63 साल से न सिर्फ सक्रिय हैं, बल्कि अपना महत्व बनाए हुए हैं। खुद को दिग्गज राजनेता यशंवत राव चह्वाण का शिष्य मानने वाले पवार राजनीति के धुरंधर और पूर्वानुमान लगा लेने वाले खिलाड़ी हैं। छह दशकों की सक्रिय राजनीति और सियासत के कई उतार-चढ़ाव देख चुकने के बाद आत्मकथा तो बनती ही है। लेकिन अपनी आत्म कथा ‘लोक माझे सांगाती’ ( लोग मेरे साथी) के विमोचन अवसर को भी उन्होंने राजनीतिक विस्फोट का प्लेटफार्म बनाया।
पवार ने राकांपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से इस्तीफे की घोषणा करके राजनीति में भूचाल ला दिया। इसके पहले उन्होंने मुहावरेदार अंदाज में कहा था कि ‘अब ‘रोटी पलटने’ का वक्त आ गया है। समय पर रोटी न पलटी जाए तो जल जाने का खतरा रहता है।‘ तब लोग इस मुहावरे के निहितार्थ भांपने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन पवार के इस्तीफे ने साफ कर दिया कि उन्होंने तुरूप का इक्का चल दिया है।
पवार की इस अप्रत्याशित घोषणा के बाद उनकी पार्टी में मानो हाहाकार मच गया। पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं में मानों चाटुकारिता की होड़-सी लग गई। पवार का इस्तीफा मानो पार्टीजनों के जीवन-मरण का प्रश्न बन गया। सभी यह दिखाने में लगे थे जैसे पवार कभी रिटायर हो ही नहीं सकते। इसमें लाचारी का भाव भी था।
यह दृश्य देखकर 2004 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेसनीत यूपीए की जीत के बाद यूपीए की चेयरपर्सन श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा प्रधानमंत्री पद स्वीकारने से इंकार करने पर जिस तरह कांग्रेसियों ने प्रलाप किया और उन्हें मनाने के लिए क्या नहीं किया, उसकी याद आ गई। वो पीएम न बनी तो कयामत आ जाएगी। लेकिन सोनिया गांधी और शरद पवार के बीच चारित्रिक फर्क है।
सोनिया कार्यकर्ताओं के रोने पीटने से पिघलने की बजाए अपने फैसले पर आखिर तक अड़ी रहीं जबकि पवार के इस्तीफे का नाटक उस हेलीकाॅप्टर शाॅट की तरह था, जिसमें बल्लेबाज को यकीन रहता है कि गेंद बाउंड्रीपार जानी ही है। वो गई भी। तीन दिन तक ‘पुनर्विचार’ बाद पवार ने यह कहकर इस्तीफा विवशभाव से वापस ले लिया कि क्या करूं, कार्यकर्ताओं की भावनाओं का अनादर नहीं कर सकता।
इस ‘अंत’ का अंदाजा हर उस व्यक्ति को था, जो पवार की राजनीति को बारीकी से जानता- समझता है। सवाल सिर्फ इतना है कि जब पवार के नेतृत्व को उनकी पार्टी में कोई चुनौती नहीं थी तो इस्तीफे के प्रहसन के मंचन की जरूरत क्या थी? अमूमन किसी भी पार्टी में शीर्ष नेताओं के इस्तीफे अथवा रिटायरमेंट की एक प्रक्रिया होती है।
यह काम सुविचारित और भविष्य की रणनीति को ध्यान में रखकर किया जाता है। उसे पार्टी के कर्णधारों का समर्थन होता है। मसलन भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी की जगह नरेन्द्र मोदी को प्रोजेक्ट करने फैसला हुआ तो छुटपुट विरोध को छोड़ उस पर व्यापक सहमति थी।
समाजवादी पार्टी में खुद मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश यादव को और लालू प्रसाद यादव ने अपने पुत्र तेजस्वी यादव को उत्तराधिकार सौंप दिया। कहीं कोई आवाज नहीं उठी। पवार भी ऐसा कर सकते थे। वो पार्टी को विश्वास में लेकर बेटी सुप्रिया सुले अथवा अजित पवार में से किसी एक को अपना राजनीतिक वारिस घोषित कर सकते थे या कोई दूसरा संतुलन साध सकते थे।
लेकिन उन्होंने खुद अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर उसे वापस लेने की बाजीगरी दिखाई। इसे उन्होंने फिर एक नए मुहावरे में व्यक्त किया कि मैंने ‘रोटी बेल दी’ ( मराठी में भाकरी थापली) है। यानी अब उसके खराब होने का खतरा टल गया है। पवार के ये मुहावरे भारतीय राजनीति में आगे भी प्रयुक्त होते रहेंगे।
सियासी ड्रामे का क्या रहा हासिल?
इस पूरे प्रहसन से हासिल क्या हुआ? इसके बारे में राजनीतिक प्रेक्षकों का अलग-अलग आकलन है।
पहला तो यह कि उन्होंने अपनी राजनीतिक गद्दी की दावेदारी से भतीजे अजित पवार को हमेशा के लिए बेदखल कर दिया है। अजित दादा के बारे में यह अफवाहें तैर रही थीं कि वो मुख्यमंत्री बनने के लिए लालायित हैं और बड़ी संख्या में राकांपा विधायकों को लेकर भाजपा के साथ जाना चाहते हैं। अजित अभी महाराष्ट्र विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। लेकिन उन्हें विपक्ष में रहना रास नहीं आ रहा है।
शिवसेना से उनकी ज्यादा बनती नहीं है। तीन साल पहले भी वो तड़के अल्पजीवी देवेन्द्र फडणवीस सरकार में उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके थे और बाद में ‘काकासाहब’ की मार्मिक गुहार के बाद इ्स्तीफा देकर पार्टी में लौट आए थे। लेकिन वो मजबूरी थी। सियासी अरमानों का पैमाना वैसा ही छलक रहा था। अजित कितने भी ‘गुड़’ हों, सियासी चालों के मामले में काकासाहब ‘शक्कर’ हैं।
पवार ने खुद इ्स्तीफे का दांव चलकर पार्टी की जबर्दस्त सहानुभूति बटोरी, अपनी अपरिहार्यता दिखाई और अजित के अरमानों पर फिलहाल तो पानी फेर दिया है। यह तब साफ झलका, जब पवार द्वारा इस्तीफा वापस लेने की घोषणा के दौरान जुटे दरबार में अजित नदारद थे। मीडिया ने पूछा तो पवार ने उड़ता-सा जवाब दिया कि मैंने किसी को नहीं बुलाया। उल्टे उन्होंने प्रतिप्रश्न किया कि क्या पत्रकार वार्ता में सभी पत्रकार आते हैं?
इशारा साफ था कि अजित दादा का उनकी निगाह में अब कोई मोल नहीं रह गया है। वो पार्टी में रहें, चाहें जाएं। अलबत्ता इस्तीफा वापसी के दूसरे दिन अज्ञातवासी अजित का एक बयान जारी हुआ कि पवार साहब के इस्तीफा वापस लेने से कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ेगा। हालांकि इस इस्तीफा प्रहसन का क्लायमेक्स इसलिए पूरा नहीं हुआ क्योंकि पवार चाहकर भी बेटी सुप्रिया को अपना अधिकृत उत्तराधिकारी घोषित नहीं कर सके। इसके लिए शायद उन्हें अभी और इंतजार करना होगा। हो सकता है कि वो कोई नई रोटी बनाएं।
दूसरा पहलू, इस्तीफे के माध्यम से पवार का पार्टी पर अपनी मजबूत पकड़ का इजहार था, जिसका संदेश सभी विपक्षी पार्टियों में गया है। साथ में यह संकेत भी कि महाराष्ट्र का यह शेर अभी जिंदा है और आगामी लोकसभा चुनाव में विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए तैयार है। यह परोक्ष हुंकार उस मुहिम को चुनौती देने की लिए थी, जिसके तहत नीतीश कुमार को विपक्षी मोर्चे के संभावित नेता के रूप में प्रोजेक्ट करने की अघोषित कोशिश की जा रही है।
बहरहाल न सिर्फ महाराष्ट्र में बल्कि समूचे भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में इस इस्तीफा प्रहसन की गूंज देखने को मिलेगी। वो इस रूप में कि क्या महाराष्ट्र में विपक्षी महाविकास आघाडी कायम रहेगी या नहीं और क्या राष्ट्रीय स्तर पर एक विपक्ष अभियान अगले लोकसभा चुनाव तक साकार होता है या नहीं। और यह भी कि भारतीय राजनीति का यह ‘नटसम्राट’ अब किस भूमिका में होगा?
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