सामाजिक कार्य हो या धार्मिक कार्य ये सभी दानदाता के बिना अधूरे रहते हैं। आयोजक के मन में दानदाता का एक विशेष दर्जा रहता है उन्हें विशेष सम्मान दिया जाता है जोकि आवश्यक भी है। दानदाताओं के बल पर ही यह सब कार्यक्रम सफल होते हैं। समाज जन या आयोजक दानदाताओं को विशेष दर्जा दे यहां तक तो ठीक है परंतु आजकल अधिकतर यही देखने में आता है कि संत भी दानदाताओं को विशेष दर्जा देने लगे बस यही एक बड़ी विडंबना है। संत के लिए सभी एक समान होना चाहिए लेकिन आजकल कई जगह ऐसा चलन हो गया कि दानदाता से संत और संत से दानदाता का तालमेल बना हुआ है। ऐसे में धर्म आराधना या समाज सेवा कम होती है और समाज जन में झांकी बाजी कहो या विशिष्टता का या धर्म के ठेकेदार बनने के चलन का जन्म हो जाता है। और कई जगह तो संत इन सब दानदाताओं के बल पर अपने अपने स्वतंत्र स्थान/ बिल्डिंग का निर्माण करा रहे हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि संत जिन्होने संसार त्याग दिया पर सांसारिक तौर तरीको से अछूते नहीं रहे। और यह सब तभी होता है कि जब समाज जन संत को भगवान का दर्जा देने लगते हैं उनकी हर बात में हां में हां मिलाते हैं। संत हमारे मार्गदर्शक हैं वे आदरणीय है। परंतु इतना ध्यान रखो कि आपके दिए आदर और पूज्यनीय स्थान का मान बना रहे। कई दानदाता संत से यही कहते है कि आप आदेश करे काम हो जाएगा। यह चिंतनीय विषय है।
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