हम लोग अक्सर बड़े नेताओ और सितारों की जन्म जयंती तो धूमधाम से मनाते हैं लेकिन जिंदगी के असली हीरो अमर शहीदो को भूला बैठते हैं। आज भारत के पहले परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा की 100 वीं जन्म जयंती है। परमवीर चक्र भारत का सर्वोच्च सैन्य सम्मान है जो आज तक केवल 21 जवानो को दिया गया है।
हिमाचल प्रदेश के दध, कांगड़ा के भारतीय सेना से गहरा नाता रखने वाले एक गौरवशाली परिवार में 31 जनवरी 1923 को अमर शहीद मेजर सोमनाथ शर्मा जी का जन्म हुआ था। उनके पिता मेजर अमरनाथ शर्मा भी सेना में डॉक्टर थे और आर्मी मेडिकल सर्विस के डायरेक्टर जनरल के पद से सेवामुक्त हुए थे। उनके छोटे भाई विश्वनाथ शर्मा भारतीय सेना के 14वें सेनाध्यक्ष रह चुके हैं। बालक सोमनाथ दादाजी द्वारा बचपन में सिखाई गई भगवद गीता की शिक्षाओं से अत्यधिक प्रभावित थे। देहरादून के प्रिन्स ऑफ़ वेल्स रॉयल मिलिट्री कॉलेज में दाखिला लेने से पहले, उन्होने शेरवुड कॉलेज, नैनीताल से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की।
22 फरवरी 1942 को भारतीय सेना की उन्नीसवीं हैदराबाद रेजिमेन्ट (वर्तमान में कुमाऊं रेजिमेंट) की आठवीं बटालियन में उनकी नियुक्ति हुई और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अराकन अभियान में जापानी सेना से लोहा लेने का मौका मिला। इस अभियान में दिखाये गए उनके पराक्रम के लिए उन्हें “मेन्शंड इन डिस्पैचैस” में सम्माननीय स्थान मिला।
सोमनाथ ने अपने माता-पिता को एक पत्र लिखा था, जो सबके लिए एक आदर्श की मिसाल बन गया था। इन्होंने लिखा था, "मैं अपने सामने आए कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। यहाँ मौत का क्षणिक डर ज़रूर है, लेकिन जब मैं गीता में भगवान कृष्ण के वचन को याद करता हूँ तो वह डर मिट जाता है। भगवान कृष्ण ने कहा था कि आत्मा अमर है, तो फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि शरीर है या नष्ट हो गया। पिताजी मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ, लेकिन मैं अगर मर गया, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैं एक बहादुर सिपाही की मौत मरूँगा। मरते समय मुझे प्राण देने का कोई दु:ख नहीं होगा। "
कुमाऊं रेजीमेंट की बहादुरी के किस्से जब-जब कहे जाएंगे उनमें मेजर सोमनाथ शर्मा का नाम जरूर आएगा। देश को आजाद हुए मुश्किल से चार महीने ही हुए थे। घुसपैठियों की रोकथाम के लिए मेजर सोमनाथ शर्मा और उनके जवानों की टुकड़ी की तैनाती कश्मीर घाटी के बदगाम मोर्चे पर की गई थी। 3 नवम्बर 1947 की सुबह पाकिस्तानी सेना ने लश्कर के कबीलाई घुसपैठियों के साथ श्रीनगर पर हमला बोल दिया था। उनका मकसद था श्रीनगर एयरबेस को कब्जे में लेना। आधुनिक हथियारों से लैस 700 लोगों की सेना ने हमारे 50 जवानों की छोटी टुकड़ी को तीन तरफ से घेरकर घातक हमला किया। भारी गोला बारी से सोमनाथ के सैनिक हताहत होने लगे। ऐसे कठिन समय में धैर्य कायम रख अपनी रण दक्षता का परिचय देते हुए सोमनाथ ने अपने सैनिकों के साथ गोलियां बरसाते हुए न सिर्फ छह घंटे तक दुश्मन को आगे बढ़ने से रोके रखा बल्कि 200 घुसपैठियों को नर्क भी पहुंचा दिया। इस दौरान उन्होंने अपने प्राणों को खतरे में डाल कपड़े की पट्टियों की मदद से वायु सेना के विमानों को ठीक लक्ष्य की ओर पहुँचने में मदद की। सोमनाथ के बाएँ हाथ में फ्रेक्चर था और उस पर प्लास्टर बंधा था। इसके बावजूद वो मैग्जीन में गोलियां भरकर सैनिकों को देते जा रहे थे। इस युद्ध में हमारे 22 जवान शहीद हुए और साथ ही वो भी चला गया जो आने वाली पीढ़ियों के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत बना रहेगा। एक मोर्टार का निशाना ठीक वहीं पर लगा, जहाँ सोमनाथ मौजूद थे और इस विस्फोट में महज 24 वर्ष की उम्र में वो शहीद हो गये। सोमनाथ की प्राण त्यागने से बस कुछ ही पहले, अपने सैनिकों के लिए ललकार थी "दुश्मन हमसे केवल पचास गज की दूरी पर है। हमारी गिनती बहुत कम रह गई है। हम भयंकर गोली बारी का सामना कर रहे हैं फिर भी, मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और अपनी आखिरी गोली और आखिरी सैनिक तक डटा रहूँगा।"
उनके शव को उनकी पिस्तौल और उनके सीने से चिपकी भागवत गीता से पहचाना गया. इसके बाद 21 जून 1950 को उन्हें देश के पहले परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। और रानीखेत में कुमाऊं रेजीमेंट केंद्र के सैन्य मैदान का नाम सोमनाथ रखा गया है।
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