राजनीति के क्षेत्र में आने वाले व्यक्ति किसी भी राजनीतिक पार्टी की सोच और अजंडे को देखती थी कौन जनसेवा के लिए सर्वथा उपयुक्त है और उसी पार्टी से जुड़ते थे। आज के दौर में कई व्यक्ति हैं जो अपनी राजनीतिक पार्टी के जरिए चुनाव जीत लेते हैं लेकिन पावरफुल बनने के मोह में अपनी ही पार्टी को छोड़कर एकाएक अन्य पार्टी को ज्वाइन करके सत्ता में शामिल हो जाते हैं। दूसरी पार्टी भी बाहर से आने वाले हर व्यक्ति को अपने गले लगाती है और उसे उपयुक्त भोज करवाती है, उसके अपने कई पुराने साथी को वह भोज उपलब्ध नहीं हो पाता पर सत्ता का पावर देखते हुए वह चुपचाप सादा खाना खाने मैं अपनी सहमती देते हैं। प्रश्न है राजनीति में व्यक्ति जन सेवा करने के लिए आता है या पावरफुल बनने के लिए जहां पैसा और सत्ता दोनों का जी भर के उपयोग करते हैं। कहां रह गए वह सब एथिक्स क्यों सत्ता भी एक तरह का मोह जाल बनते जा रहा है जिससे जुड़ने पर बहुत पैसा और सत्ता सुख मिलेगा। यदि जनसेवा का उद्देश लेकर राजनीतिक पार्टी बनती है तो उसे धन बल की क्या जरूरत पर आज राजनीतिक पार्टियां धन बल के आधार पर ही सत्ता चला रही है। कुछ समझ में नहीं आ रहा की राजनीति की क्या परिभाषा स्थापित हो रही है जनसेवक का रूप और नाम लेकर जनता के बीच आते हैं। जनता भी क्या करें जिसे चुनती है जब जीतने के बाद वही बदल जाए।
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