आदिवासियों से सत्ता की चाबी के लिए गुहार लगाते सियासी दल
Updated on
09-08-2022 01:00 PM
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ताशीर्ष पर पहुंचने का रास्ता आदिवासियों के बीच से होकर गुजरता है और यह वर्ग जिस किसी का एकतरफा समर्थन कर देता है उसकी सरकार आसानी से बन जाती है। यही कारण है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में इन वर्गों का झुकाव कांग्रेस की तरफ बढ़ा तो भाजपा की तीन दशक की सरकार को पदच्युत होना पड़ा और दोनों ही राज्यों में भगवा सूर्योदय के स्थान पर कांग्रेस की तिरंगी सत्ता का सूर्योदय हुआ। छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस की एकतरफा जीत हुई लेकिन मध्यप्रदेश में वह बहुमत से कुछ कदम पीछे रह गयी और निर्दलियों तथा बसपा-सपा के सहयोग से उसने सरकार बनाई। मध्यप्रदेश में तो पन्द्रह साल बाद बनी सत्ता आपसी खींचतान और गुटबंदी के फेर में उलझ कर उसके हाथों से 15 माह में ही फिसल गयी और फिर से शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बन गए। छत्तीसगढ़ में तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम इसी वर्ग से आते हैं तो वहीं मध्यप्रदेश में आदिवासियों के बीच अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए भाजपा संगठन और सरकार तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सक्रिय हो गया है। कांग्रेस भी आदिवासी नेताओं को मैदान में उतार रही है क्योंकि जब उसकी सरकार 2018 में बनी उस समय अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 47 में से 31 सीटें कांग्रेस ने जीती थीं। कांग्रेस की कोशिश है कि किसी भी सूरत में उसका जो प्रभाव इन वर्गों में बढ़ा है वह कम न होने पाये बल्कि और मजबूत हो। इसके विपरीत भाजपा अब इस अभियान में जुट गयी है कि हर हाल में आदिवासियों के बीच अपनी पैठ बढ़ाये। पहली आदिवासी महिला द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने के बाद उसका यह अभियान और तेज होने वाला है ताकि वह इन वर्गों के बीच जाकर कह सके कि उसने ही इस वर्ग की महिला को देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचाया है। मध्यप्रदेश में नगरीय निकाय एवं पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों से निपटने के बाद अब सत्ता की दावेदार दोनों पार्टियों भाजपा व कांग्रेस ने दो करोड़ आदिवासी मतदाताओं को रिझाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाना प्रारम्भ कर दिया है। भाजपा में तीन मोर्चे संघ, संगठन और सरकार सक्रिय है तो कांग्रेस ने भी अपने आदिवासी नेताओं को मैदान में उतार दिया है। 2003 से लेकर अभी तक हुए चार विधानसभा चुनावों में जीत का गणित देखा जाए तो जिस भी दल ने 22 प्रतिशत आदिवासी आबादी को साध लिया उसकी सरकार बनती है। प्रदेश में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 47 सीटें हैं और इसके अलावा 35 अन्य क्षेत्रों में भी आदिवासी मतदाताओं की संख्या आधा लाख से ज्यादा है। इस प्रकार प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में से 82 सीटों पर आदिवासी वोट अहम है और यह जिसके साथ चला जाता है उसकी सत्ता की राह अपेक्षाकृत आसान हो जाती है। भाजपा ने दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली एक दशक की कांग्रेस सरकार को इसी वोट बैंक के सहारे उखाड़ फेंका था। 2003 में उसने हिंदू संगम किया और उसके बाद कांग्रेस सरकार 15 साल तक प्रदेश की सत्ता में नहीं आ पाई। 2003 के चुनाव में भाजपा 37 सीटें हथिया कर दो तिहाई बहुमत पाया और अब भाजपा का लक्ष्य आरक्षित 47 सीटों में से 40 सीटें जीतने का है, इसके लिए वह सधे हुए कदमों से आगे बढ़ रही है। भाजपा ने लगभग साल भर का इन वर्गों के बीच आयोजन करने का कैलेंडर बनाया है। संघ भी लगातार सक्रिय है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वी.डी. शर्मा इन क्षे़त्रों के नियमित दौरे आरम्भ करने वाले हैं। एक साल में भाजपा ने आदिवासी वर्गों में पैठ बढ़ाने के लिए बड़े आयोजन किए हैं। टंट्या मामा के शहादत दिवस पर अमृत महोत्सव मनाया और हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर रानी कमलापति स्टेशन किया गया और टंट्या मामा की प्रतिमा लगाई गई। 2018 में कांग्रेस ने अजजा वर्ग के लिए आरक्षित 47 में से 31 सीटें जीती थीं। आदिवासी कांग्रेस का अध्यक्ष पूर्व मंत्री ओमकार सिंह मरकाम को बनाया गया है और वह प्रदेश के 89 में से अधिकांश ब्लाकों में पहुंच चुके हैं। 2008 में भाजपा ने 29 और कांग्रेस ने 16 सीटें जीती थीं जबकि कांग्रेस ने 2013 में 15 और भाजपा ने 31 सीटे जीती थीं। कमलनाथ स्वयं भी नौ अगस्त को टंट्या मामा की जन्मस्थली पातालपानी जायेंगे और उनकी सरकार ने आदिवासियों द्वारा साहूकारों से लिया गया कर्ज माफ करने की जो योजना बनाई थी कांग्रेस सरकार आने पर उसके क्रियान्वयन का वादा करेंगे। इस प्रकार अब 2023 के विधानसभा चुनाव तक आदिवासी राजनीति गरमाने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। अरुण पटेल,लेखक, प्रधान संपादक (ये लेखक के अपने विचार है )
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