एक पिता-पुत्र साथ में व्यापार करते थे। पुत्र को पिता के साथ कार्य करते हुए वर्षों बीत गये, उसकी उम्र भी चालीस को छूने लगी। फिर भी पुत्र को पिता न तो व्यापार की स्वतन्त्रता देते थे और न ही तिजोरी की चाबी। पुत्र के मन में सदैव यह बात खटकती। वह सोचता, "यदि पिता जी का यही व्यवहार रहा तो मुझे व्यापार में कुछ नया करने का कोई अवसर नहीं मिलेगा I पुत्र के मन में छुपा क्षोभ एक दिन फूट पड़ा। दोनों के बीच झगड़ा हुआ और सम्पदा का बँटवारा हो गया। पिता-पुत्र दोनों अलग हो गये। पुत्र अपनी पत्नी, बच्चों के साथ रहने लगा। पिता अकेले थे, उनकी पत्नी का देहांत हो चुका था। उन्होंने किसी दूसरे को सेवा के लिए भी नहीं रखा क्योंकि उन्हें किसी पर विश्वास नहीं था। वे स्वयं ही रूखा-सूखा भोजन बनाकर खा लेते या कभी चने आदि खाकर ही रह जाते तो कभी भूखे ही सो जाते थे I
उनकी पुत्रवधु बचपन से ही सत्संगी थी। जब उसे अपने ससुर की ऐसी हालत का पता चला तो उसे बड़ा दुःख हुआ, आत्मग्लानि भी हुई। उसमें बाल्यकाल से ही धार्मिक संस्कार थे, बड़ों के प्रति आदर व सेवा का भाव था। उसने अपने पति को मनाने का बहुत प्रयास किया परंतु वे ना माने। पिता के प्रति पुत्र के मन में सदभाव नहीं था। अब पुत्रवधु ने एक विचार अपने मन में दृढ़ कर उसे कार्यान्वित किया। वह पहले पति व पुत्र को भोजन कराकर क्रमशः दुकान और विद्यालय भेज देती, बाद में स्वयं ससुर के घर जाती। भोजन बनाकर उन्हें खिलाती और रात्रि के लिए भी भोजन बनाकर रख देती। कुछ दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। जब उसके पति को पता चला तो उसने पत्नी को ऐसा करने से रोकते हुए कहाः "ऐसा क्यों करती हो ? बीमार पड़ जाओगी। तुम्हारा शरीर इतना परिश्रम नहीं सह पायेगा।" पत्नी बोली "मेरे आदरणीय ससुरजी भूखे रहें। तकलीफ पायें और हम लोग आराम से खायें-पियें, यह मैं नहीं देख सकती I मेरा धर्म है बड़ों की सेवा करना, इसके बिना मुझे संतोष नहीं होता। उनमें भी तो मेरे भगवान का वास है। मैं उन्हें खिलाये बिना नहीं खा सकती।
भोजन के समय उनकी याद आने पर मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं। उन्होंने ही तो आपको पाल-पोसकर बड़ा किया और काबिल बनाया है, तभी आप मुझे पति के रूप में मिले हैं। आपके मन में कृतज्ञता का भाव नहीं है तो क्या हुआ, मैं उनके प्रति कैसे कृतघ्न हो सकती हूँ I
पत्नी के सुंदर संस्कारों ने, सदभाव ने पति की बुद्धि पलट दी। उन्होंने जाकर अपने पिता के चरण छुए, क्षमा माँगी और उन्हें अपने घर ले आये। पति पत्नी दोनों मिलकर पिता की सेवा करने लगे। पिता ने व्यापार का सारा भार पुत्र पर छोड़ दिया। परिवार के किसी भी व्यक्ति में सच्चा सदभाव है, मानवीय संवेदनाएँ हैं, सुसंस्कार हैं तो वह सबके मन को जोड़ सकता है, घर-परिवार में सुख शांति बनी रह सकती है और यह तभी सम्भव है जब जीवन में सत्संग हो, भारतीय संस्कृति के उच्च संस्कार हों, धर्म का सेवन हो I
जीवन का ऐसा कौन-सा क्षेत्र है जहाँ सत्संग की आवश्कता नहीं है ! सत्संग जीवन की अत्यावश्यक माँग है क्योंकि सच्चा सुख जीवन की माँग है और वह सत्संग से ही मिल सकता है |
अनोखे लाल द्विवेदी, लेखक ये लेखक के अपने विचार है I
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