मोहन भागवत की सीख को मुसलमान स्वीकार करें - विष्णुगुप्त
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16-09-2021 11:27 PM
आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने एक बार फिर मुसलमानों को सीख दी है, उन्होंने कहा कि उन्हें संघ डराने का काम नहीं करता है, संघ मुसलमानों को पिछड़े हुए समूह के तौर पर देखना नहीं चाहता है, संघ मुसलमानों के विकास, उन्नति चाहता है, संघ मुसलमानों को सुरक्षित देखना चाहता है। मोहन भागवत ने यह भी कहा कि भारत में रहने वाले मुसलमानों और अन्य धर्मो और अन्य विचारधाराओं के मानने वाले लोगों के पूवर्ज हिन्दू ही हैं, इस प्रकार हमारी विरासत एक है, हमारा डीएन एक है, फिर टकराव और उफान सहित परस्पर हिंसा क्यों? मोहन भागवत ने ये बातें पहली बार नहीं बोली है, बल्कि बार-बार बोली है। यह अलग बात है कि संघ विरोधी विचार धाराएं, संघ विरोधी राजनीतिक धाराएं और मुस्लिम समुदाय से जुड़ी हुई कट्टरपंथी मानसिकताओं को मोहन भागवत की ये उक्तियां हजम नहीं होती हैं, उन्हें ये उक्तियां बकवास लगती हैं, बेकार की लगती हैं और वे संघ को देखने-समझने की कसौटी पर अपनी जेहादी या फिर कट्टरपंथी मानसिकताओं को छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं है। जिहादी और कट्टरपंथी मानसिकताओं में कैद रहने वाले लोग खुद का तो विनाष करते ही है, इसके अलावा विभिन्न धर्मो, संप्रदायों और अन्य विचार धाराओं के बीच परस्पर विचार विमर्ष की अवधारणाओं भी दफन करते हैं। आधुनिक समय से पुरातन काल की रूढ़ियों का गुलाम बना रहना, उस पर हिंसक रूप से आग्रही रहना लाभकारी नहीं हो सकता है बल्कि पुरातन काल की रूढ़ियां विस्थापन, पिछडापन, बेकारी, भूखमरी और मानवता को शर्मसार करने वाली घटनाओं की पर्याय बन गयी हैं। इसका उदाहरण तो अब साक्षात देखने और समझने को मिल रहा है, हालांकि ऐसे उदाहरणों पर चर्चा कम ही होती है, चर्चा के निष्कर्षो को पालन करने की प्रक्रिया कम ही चलती है। क्या इसके दुष्परिणाम के रूप् में अफगानिस्तान में हिंसक, विस्फोटक और मानवता को शर्मसार करने वाले तालिबान का उदय नहीं हुआ है? क्या सीरिया,इराक, लेबनान जैसे दर्जनों मुस्लिम देशों में मुस्लिम आतंकवाद से खुद मूसलमान हिंसा के शिकार नहीं हैं क्या, खूद मुसलमान पलायन के शिकार नहीं हैं क्या ? निश्चित तौर पर संघ ने मुसलमानों के प्रति अपनी नजरियां बदली है, निश्चित तौर पर संघ ने देश की धर्मनिरपेक्ष आधारित व्यवस्था के तत्व को आत्मसात किया है, भारत में उपस्थित बहुलतावाद की जनसंाख्यिकी पारिस्थिति से अवगत हुआ है। यही कारण है कि संघ बार-बार मुसलमानों के प्रति अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट करने का काम किया है। इसे पहले यह आरोप लगते रहे थे कि संघ सिर्फ एंकाकी सोच ही रखता है, संघ के पास मुसलमानों के लिए कोई सकारात्मक सोच नहीं है, मुसलमानों के लिए कोई सम्मानजनक जगह नहीं है, संघ मुसलमानों का विरोधी है, संघ मुसलमानों का अंत चाहता है, संघ मुसलमानों को भारत से खदेड़ना चाहता है, संघ दंगे करा कर मुसलमानों का सफाया करने का अभियान चलाता है। ऐसी अवधारणाएं तब बनी थी जब संघ ने देश विभाजन को स्वीकार नहीं किया था, देश विखंडन की जिन्ना की राजनीति को स्वीकार नहीं किया था, मोहम्मद इकबाल की दो धर्म और दो देश की थ्योरी को स्वीकार नहीं किया था, मजहब के आधार पर पाकिस्तान निर्माण को स्वीकार नहीं किया था। देश विभाजन, देश विखंडन की मुस्लिम मजहबी नीति, मोहम्मद इकबाल की दो धर्म और दो देश की थ्योरी आदि के विरोध के पीछे देशभक्ति थी। संघ की अखंड भारत की अवधारणाएं थी। इसमें मुस्लिम विरोध का कहीं कोई स्थान नहीं था। संघ की उस समय की अंखड भारत अवधारणा में मुसलमानों को खारिज करने की नीति भी नहीं थी। संध ने मुसलमानों की चिंताओं और आशंकाओं को दूर करने की कोशिश भी की है। संघ ने अपनी ओर से कई स्तरों पर और कई प्रकल्पों के माध्यम से मुसलमानों की आशकाओं को दूर करने की कोशिश की थी। पर बात नहीं बनी तो फिर संघ ने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच बनाया। इस पर भी मुसलमानों के बीच खलबली मची, मुसलमानों के बीच में जिहादी और कट्टरपंथी समूह ने बंवडर खड़ा कर दिया, मजहबी प्रसंग में हस्तक्षेप मान लिया और प्रचारित कर दिया गया कि संघ ने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच बना कर इस्लाम की तौहीन की है, मुसलमानों का धर्मातरंण करना चाहता है आदि-आदि। इस हिंसक विचार के पीछे मुस्लिम जिहादियों और कट्टरंपथियो के समूह ने तर्क दिया था कि चूंकि मुस्लिम समुदाय किसी भी राष्ट्रीयता में विश्वास नहीं करती है, इस्लाम राष्ट्रीयता की अवधारणा को खारिज करता है, हम सिर्फ एक ही राष्ट्रीयता को स्वीकार करते हैं वह है मुस्लिम और इस्लाम। पूरी दुनिया के मुसलमान इस्लाम के नाम पर एक हैं और यही उनकी पहचान है। संघ ने जब देखा कि उनके प्रयास को जिहादी और कट्टरपंथी समूह पलीता लगाने के लिए तैयार बैठे हैं, उनके प्रयास को विरोध का हथकंडा बनाने पर तुले हुए हैं तब संघ ने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच का नाम बदलना ही श्रेयकर समझा। राष्ट्रीय मुस्लिम मंच का नाम बदल कर मुस्लिम राष्ट्रीय मंच कर दिया गया। नाम बदलने पर मुस्लिम समुदाय खुष हो गयी। मुस्लिम समुदाय के जिहादी और कट्टरपंथी समूह वालों को इसमें संघ की पराजय और अपनी जीत नजर आयी थी। संघ के बडे प्रचारक इन्द्रेष कुमार मुिस्लम राष्ट्रीय मंच के कामकाज देखते हैं। इन्द्रेष कुमार का कहना है कि संघ के दृश्टिकोण की स्वीकार्यता मुसलमानों के बीच लगातार बढी है, संघ से कभी डरने वाला मुसलमान अब वास्तविकता को समझ रहा है, आधुनिक युग की जरूरतो को समझ रहा है, हिंसा और अलगाव की राजनीति को समझ रहा है, भले-बूरे को समझ रहा है, भले की सुखद परिणामों और बूरे के प्रतिकूल और आत्मघाती दुश्परिणामों को समझ रहा है, साक्षात उदाहरण देख रहा है। इन्द्रेष कुमार तक देते हैं कि हर समुदाय में भले बुरे होते हैं। हमारी संस्कृति में भी रावन, कंश और दूर्योधन जैसे दूराचरी लोग हुए हैं। पर इन दूराचारियों को हमारी संस्कृति ने आइकाॅन नहीं बनाया, इनकी दुराचारी पद चिन्हों पर चलना स्वीकार नहीं किया गया। हमारे आदर्श तो राम, कृष्ण ही है। जिस समाज, जिस समुदाय के अंदर हमेशा भले की रूप में उपस्थित महापुरूष आईकाॅन होता है, आदर्श होता है वह समाज और वह समुदाय हमेशा सुखमय रहता है, प्रगति के मार्ग पर चलता रहता है। मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने खासकर नवजवान मुसलमानों के नजरियों को बदलने का काम जरूर किया हैै। कई ऐसे प्रसंग हैं जिस पर हिन्दुओं और मुसलमानो के बीच तनातनी रहती थी, टकराव रहता था पर अब उन तनातनी और टकराव के प्रसंगों पर भी शातिपूर्ण चर्चा हो रही है। राममंदिर के प्रसंग पर भी मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने मुसलमानों के बीच जनमत तैयार किया था। जब राम मंदिर पर अदालत का फैसला आया तो फिर कहीं से भी हिंसक विरोध नही हुआ, धारा 370 समाप्त हुई तो फिर देश में कहीं भी कोई मुस्लिम उफान वाला या फिर हिंसा वाला विरोध देखने को नहीं मिला। यह बदलाव को संघ अपनी जीत भी कह सकता है। संघ की मुसलमानों से अपेक्षाएं क्या है ?
संघ सिर्फ यह चाहता है कि हमारी जो विरासत है, हमारी जो संस्कृति है उसका सम्मान होना चाहिए। जब हमारे पूर्वज एक हैं तो फिर हमें अपने पूर्वजों का सम्मान करने में हर्ज क्या है? भारतीय मुसलमानों को इंडोनेशिया का उदाहरण देखना चाहिए। इंडोनेशिया, भारत के मुसलमानों को सीख देने के लिए सर्वश्रेश्ठ उदाहरण है। इंडोनेशिया कोई हिन्दू देष नहीं है। इंडोनेशिया भी एक मुस्लिम देष है। फिर इंडोनेशिया की विषेशताएं क्या हैं जिनसे भारतीय मुसलमानों को सीख लेने की जरूरत है और इंडोनेशिया की परमपराओं पर चलने की जरूरत है। इंडोनेशिया कभी हिन्दू देश था, वहा पर सनातन संस्कृति थी, सनातन संस्कृति जींवत भी थी। इस्लाम वहां पर अपना पैर पसारा और पूरा इंडोनेशिया इस्लाम के झंडे के नीचे आ गया। इंडोनेशिया तो इस्लामिक देश बन गया पर उसने अपनी हिन्दू सनातन संस्कृति नहीं छोडी है, भगवान विष्णु, भगवान राम आज भी इंडोनेशियाई मुस्लिमों के लिए प्रेरणा के स्रोत के रूप में उपस्थित है। इंडोनेशिया के रूपये पर भगवान विष्णु की तस्वीर होती है। दशहरे के अवसर पर पूरे इंडोनेशिया में रामलीलाएं खेली जाती है। रामलीला में पाठ करने वाले मुस्लिम ही होते हैं। निश्चित तौर पर भारत में मुसलमान दुनिया के अन्य देशो से ज्यादा सुखी है। उन्हें बहूसंख्यक हिन्दुओं से ज्यादा अधिकार मिले हुए हैं। हिन्दू दूसरी पत्नी नहीं रख सकता है, पर मुसलमान अपने मजहब के अनुसार एक साथ चार बीबीयां रख सकता है। हिन्दूओं के कर्मकांड को पढ़ाने के लिए सरकारी पाठशालाएं नहीं खोली जाती पर इस्लाम की शिक्षा के लिए पाठषालाएं हैं जिन्हें सरकार से पूरी आर्थिक मदद मिलती है। मुस्लिम शिक्षण संस्थाएं इस्लाम के प्रचार के लिए स्वतंत्र हैं जिसमें सरकार का हस्तक्षेप वर्जित है। कांग्रेस के नेता गुलाम नवी आजाद ने राज्यसभा में कहा था कि हम भारत में सबसे ज्यादा सुरक्षित और खुशहाल हैं। अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, लेबनान और पाकिस्तान जैसे दर्जनों मुस्लिम देश हैं जहां पर एक मुसलमान ही दूसरे मुसलमान के खून के प्यासे हैं। अफगानिस्तान में मुसलमान पलायन करने के लिए तैयार हैं पर कोई मुस्लिम देश उन्हें शरण देने के लिए तैयार हैं क्या? शरण देने के लिए तो भारत, अमेरिका और यूरोप ही आगे आते है। भारतीय मुसलमानों को इस उपस्थित तर्क और तथ्य को भी समझना होगा। मोहन भागवत की सीख से मुसलमानों का ही भला होगा।
विष्णु गुप्त,वरिष्ठ पत्रकार,लेखक,नई दिल्ली ये लेखक के अपने विचार है I
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