बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जबसे भारतीय जनता पार्टी को सरकार से बाहर कर अपनी अगुवाई में बिहार में महागठबंधन की सरकार बनाई है उसके बाद से मीडिया का एक वर्ग जो अपने आपको राष्ट्रीय मीडिया भी कहता है वह इस बात को लेकर अधिक चिंतित नजर आ रहा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी के मुकाबले विपक्ष का चेहरा राहुल गांधी होंगे, नीतीश होंगे या कोई अन्य। इसको लेकर ही मीडिया में बहस छिड़ी हुई है। इस दौड़ में कभी ममता बनर्जी को आगे किया जाता है तो कभी शरद पवार और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव का भी नाम लिया जाता है। वैसे जहां तक समर्थकों का सवाल हर क्षेत्रीय दल अपने नेता को ही जब पूछा जाता है तब प्रधानमंत्री के रुप में उसके नाम को आगे कर देते हैं, जबकि नीतीश कुमार कह चुके हैं कि उनकी प्रधानमंत्री बनने की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। उनका कहना है कि केवल 2014 व 2019 में जो आये थे उनसे यह सवाल उनसे पूछिए कि 2024 के बाद कहां रहेंगे। यह तो साफ है कि अब नीतीश कुमार राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करेंगे और बिहार में उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव सक्रिय रहेंगे। जैसे ही गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस पार्टी छोड़ी उसके साथ ही तृणमूल कांग्रेस अब ममता बनर्जी की अहमियत बताने में जुट गई है। भले ही ममता बनर्जी को फिर से उनके समर्थक उभारने में लगे हैं लेकिन पिछले दिनों हुई कुछ राजनीतिक घटनाओं ने यह साबित कर दिया है कि ममता बनर्जी परिपक्वता के स्थान पर अपने मान-सम्मान को काफी महत्व देती हैं और ऐसा कुछ कर जाती हैं कि जिससे उसी दल को फायदा होता है जिससे वह पूरी ताकत से जूझने का दंभ भरती हैं। गोवा में जहां उनकी पार्टी का कोई आधार नहीं था वहां उन्होंने तालमेल की राजनीति के स्थान पर ऐकला चलो की नीति अपनाई जिससे उनकी पार्टी को कोई फायदा नहीं हुआ उनसे अच्छी स्थिति तो आम आदमी पार्टी की रही, लेकिन विपक्षी दलों के बीच एकता न होने के कारण वहां भाजपा को फायदा हो गया और उसकी सरकार बन गयी। उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान हर कदम पर पश्चिमी बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ से लड़ने वाली ममता बनर्जी ने चुनाव के बहिष्कार का निर्णय कर पहले ही यह सुनिश्चित कर दिया कि विपक्ष चुनाव जीत ही नहीं पायेगा। इस वक्त उन्होंने यह दलील दी कि उनसे मार्गरेट अल्वा को उम्मीदवार बनाने के पूर्व विपक्षी दलों ने चर्चा नहीं की। गुलाम नबी आजाद के कांग्रेस छोड़ते ही टीएमसी के अरमानों को फिर से पंख लग गये हैं। उनके राज्यसभा सदस्य डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि कांग्रेस के बड़े नेताओं में सिर्फ गुलाम नबी आजाद ने ही पार्टी छोड़ी है बाकी नेताओं ने कांग्रेस से बहिष्कृत किए जाने के बाद अपनी नई पार्टी बनाई थी। लेकिन कुछ समय बाद ही सभी कांग्रेस में वापस आ गये थे। उन्होंने कहा कि 1999 में शरद पवार ने बड़ी-बड़ी बातें करके कांग्रेस छोड़ी थी, आज उनका यह हाल हो गया कि अपना अस्तित्व बचाने के लिए महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के लिए दौड़ कर आगे आये हैं। शायद डेरेक यह भूल गये कि शरद पवार और कांग्रेस मिलकर महाराष्ट्र में 10 साल तक सरकार चला चुके हैं। डेरेक के अनुसार एकमात्र ममता बनर्जी ने ही 1997 में कांग्रेस छोड़ने के बाद उसमें लौटने की कोशिश नहीं की बल्कि कांग्रेस को बंगाल में शून्य कर दिया। पिछले 11 साल से तृणमूल ने कांग्रेस से कोई सम्बन्ध नहीं रखा है और 2024 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी बंगाल की सभी 42 सीटों पर अपने दम पर लड़ेगी। तृणमूल ही आज मुख्य विरोधी शक्ति है। उनका यह भी कहना है कि यह सही है कि कांग्रेस छोड़कर जो नेता गये थे उनमें से शरद पवार ही ऐसे हैं जो वापस नहीं लौटे और आज भी राजनीतिक फलक पर अपनी राष्ट्रीय नेता की पहचान बनाये हुए हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अभी भी अस्तित्व में है लेकिन वह कांग्रेस की दया पर है। अचानक फिर से ममता की अहमियत रेखांकित करने का मकसद यह हो सकता है कि 2024 का लोकसभा चुनाव मोदी बनाम कांग्रेस की लड़ाई न हो जाये इसलिए तृणमूल अभी से यह सुनिश्चित करने में जुट गयी कि टीएमसी ममता बनर्जी को मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर स्थापित कर सके। अब यह तो तृणमूल को ही सोचना होगा कि एक ओर तो वह विपक्ष की राजनीति की सिरमौर बनना चाहती है और दूसरी ओर अन्य क्षेत्रीय क्षत्रपों का कद छोटा करने में क्यों भिड़ गई है। अपनी लकीर बड़ी करने के फेर में यदि वह दूसरों की लकीर छोटी करना चाहती है तो फिर उनकी और एनडीए की राजनीति में क्या फर्क रह जायेगा।
अरुण पटेल, संपादक, लेखक (ये लेखक के अपने विचार है)
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