वह जीवन जीने का एक दौर था जब ना तो मोबाइल था ना टीवी था, तब ज्ञान और शिक्षा की बातें दादी की कहानियों के जरिए सिखाई जाती थी। दादा दादी, माता पिता और शिक्षक उनके जीवन का अनुभव आने वाली पीढ़ी को सब कुछ सिखा देते थे जो उसकी बेहतरी के लिए आवश्यक होता था। आज का दौर बड़ा अजीब हो गया पता नहीं कितने बच्चों ने दादा, दादी या मम्मी पापा से कोई कहानी सुनी हो जिससे उसका ज्ञान बढ़ा हो, कोई शिक्षा मिली हो, कोई सीख मिली हो। पहले टीचर बच्चों को डांट डपट करके हल्की सी चपत भी लगाते कर पढ़ाते थे। आज का दौर सरकारी कानून ने बिल्कुल अलग करा दिया लापरवाह बच्चे टीचर के खिलाफ आवाज उठा लेते हैं। कहते हैं बच्चे गीली मिट्टी की तरह होते हैं उनको जिस रूप में भी ढालना हो आप ढाल सकते हो आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि बच्चे को कौन किस रूप में जिम्मेदारी लेकर ढाल रहा है, कई मां बाबा बच्चों पर मेहनत करते हैं पर कई मां बाप ने बच्चे पैदा कर छोड़ दिए, कई मां बाप के बहुत सारे बच्चे हैं तो सब पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं और कई मां बाप बच्चों के जरिए कमाई का साधन ढूंढने लग गए, कई मां-बाप बच्चे क्या कर रहे हैं उस पर ध्यान नहीं देते हैं । दिन पर दिन बच्चों में आदर्शता और संस्कार की कमी होती जा रही है नतीजन कई नवयुवक गलत दिशा में भटक रहे हैं। जरूरी है हर परिवार में कोई न कोई दादी का रोल जरूर अदा करें।
अशोक मेहता, इंदौर (लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद्) ये लेखक के अपने विचार है I
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