बहुत पहले के जमाने में इंसान अपना इलाज जंगली जड़ी बूटी पेड़ पत्तियां छाल भभूत आदि से कर लेता था। फिर आयुर्वेद और होम्योपैथी यूनानी आदि का जमाना आया। वैद्यराज हुआ करते थे जो नाड़ी देखकर यह जान जाते थे कि क्या और कहां बीमारी है फिर मरीज से पूछताछ करके इस बात का पता लगाते थे की बीमारी की जड़ क्या है उसी आधार पर इलाज करते थे और आज भी यही होता है। एलोपैथी का जमाना आया पहले इतनी दवाइयां गोलियां नहीं बनती थी डॉक्टर बेसिक कंपाउंड से दवाई बनाकर पुडिया या कांच की शिशी में पिने की दवाई देते थे। जबसे फार्मा इंडस्ट्री ने दवाइयां धड़ाके से बनाना शुरू किया तबसे मेडिकल प्रोफेशन पैसा बनाने का जबरजस्त जरिया बन गया। कंपनियां डॉक्टर को विदेश यात्रा, कमीशन का ऑफर देकर दवाई लिखवा कर मनमानी किमत पर बेचते हैं। ऐसे डॉक्टरो का लालच सैकड़ों मरीजों का पैसों लुटवा देता हैं। कई डॉक्टर कैरेक्टर से गिर चुके और पैसे के पुजारी हो गए जबकि डॉक्टर होने के बाद शपथ मानवता की सेवा की लेते हैं। कई डॉक्टर बीमारी की जड़ की तक नहीं जा पाते हैं कई जांचे करवाएंगे (उसमे भी कमीशन होगा) और जांच रिपोर्ट के आधार पर दवाइयां लिख देंगे। बेचारा मरीज भरोसे के साथ जाता है और लुटा कर वापस आता है। परंतु आज भी कई डॉक्टर मानवता के अवतार के रूप में है जो वास्तविकता में मानव सेवा कर रहे हैं। ऐसे सभी डॉक्टरों को हम सब का सलाम। अशोक मेहता, इंदौर (लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद्) ये लेखक के अपने विचार है I
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