महाराष्ट्र सियासत: अजित पवार एपिसोड और भारतीय राजनीति के दो ‘मान्य’ फार्मूले !
Updated on
06-07-2023 05:06 PM
सार
भारतीय समाज में भ्रष्टाचार शब्द अब एक सियासी फुटबॉल की तरह है, जिसे हर कोई अपनी सुविधा और मकसद से किक मारता रहता है। कभी-कभी यह सेल्फ गोल में भी बदल जाती है। इस खेल का अजब नियम यह है कि भ्रष्टाचार की यह बॉल जब तक दूसरे के पाले में होती है, तब तक ‘भ्रष्टाचार’ होती है और जब वह अपनी ‘डी’ में होती है तो शिष्टाचार का रूप ले लेती है।
विस्तार
देश के सबसे धनी राज्य माने जाने वाले महाराष्ट्र में सत्ता के लिए खेले गए पार्ट थ्री एपिसोड का अंत क्या होगा? यह देखना दिलचस्प होगा, क्योंकि यह सियासी धारावाहिक अभी चल ही रहा है। इस देश में काका के खिलाफ भतीजे की राजनीतिक बगावत नई बात नहीं है। लेकिन नई बात अगर कुछ है तो ये कि इस देश में आर्थिक और नैतिक भ्रष्टाचार अब कोई मुददा नहीं है और यह भी कि अब भारतीय राजनीति में ‘थूक कर चाटना’ भी सर्वमान्य कल्चर बन चुका है।
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सत्ता स्वार्थ के लिए कभी भी यू-टर्न ले लेना अब राजनीतिक राजमार्ग पर चलने का अलिखित ट्रैफिक नियम है और कुछेक को छोड़ कोई भी इसका अपवाद नहीं है। महाराष्ट्र का ताजा राजनीतिक घटनाक्रम इसका बड़ा उदाहरण है। कल को यही बिहार में भी दोहराया जा सकता है। इस खेल में अगर कोई मूर्ख बन रही है तो वो है जनता, जिसके पास निरीह विवशता के अलावा और कोई विकल्प शायद नहीं छोड़ा गया है।
भारतीय समाज में भ्रष्टाचार शब्द अब एक सियासी फुटबॉल की तरह है, जिसे हर कोई अपनी सुविधा और मकसद से किक मारता रहता है। कभी-कभी यह सेल्फ गोल में भी बदल जाता है। इस खेल का अजब नियम यह है कि भ्रष्टाचार की यह बॉल जब तक दूसरे के पाले में होती है, तब तक ‘भ्रष्टाचार’ होती है और जब वह अपनी ‘डी’ में होती है तो शिष्टाचार का रूप ले लेती है। यहां तक कि उसका रंग और राजनीतिक तासीर तक बदल जाती है।
क्या बोले शरद पवार?
गौर करें कि बरसों से काका शरद पवार के राजनीतिक पोषण आहार पर पले भतीजे अजित पवार के भाजपा शिवसेना महायुति के साथ सत्ता में जाने के फैसले से दुखी राकांपा अध्यक्ष (कम से कम अभी तक तो हैं हीं) शरद पवार ने कहा कि मेरे जिन लोगों पर भाजपा ने बरसों गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए, वो अब भाजपा के साथ मिलते ही ‘दोषमुक्त’ हो गए हैं।
उनका कहने का आशय यह था कि भाजपा अब एक ‘राजनीतिक गंगा’ है, जिसमें स्नान करते ही स्वत: पाप प्रक्षालन हो जाता है। इस हिसाब से उस अजित पवार एंड कंपनी, जिसके पीछे ईडी लगी है, भाजपा के हमकदम होते ही ईमानदारी का बाना धारण कर चुकी है। ये वही कंपनी है, जिसके खिलाफ भाजपा नेता और पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस भ्रष्टाचार के खुले आम आरोप लगाया करते थे। लेकिन अब भाजपा के ‘सुरक्षा चक्र ‘में आते ही इन सभी कथित भ्रष्टाचारियों ने राहत की गहरी सांस ले ली है।
जो कल तक थे अपने, आज वो भ्रष्टाचारी
एक दिलचस्प बात और कि जो शरद पवार ‘अजित एंड कंपनी’ को अब परोक्ष रूप से ‘भ्रष्टाचारी’ बता रहे हैं, वो कल तक इन सबको अपने परिवार का ही हिस्सा मानते रहे हैं। यानी उनकी छत्रछाया में चलने वाला भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार नहीं था, ‘परफॉर्मेंस’ था। (कुछ लोगों का तो अभी भी मानना है कि यह सब काका भतीजे का मिला जुला गेम है) राजनीतिक छत्र बदलते ही वह फिर भ्रष्टाचार में तब्दील हो गया है।
इसका अर्थ यही है कि अपने भ्रष्टाचार करें तो वह भ्रष्टाचार हो ही नहीं सकता। यह शब्द और भाव केवल ‘गैरों’ के लिए है। हालांकि, खुद काका शरद पवार पर भी उनके केन्द्रीय कृषि मंत्री रहते कदाचार के आरोप लगे हैं। लेकिन कभी किसी ने उसकी जांच इसलिए नहीं कराई, क्योंकि विरोध के झीने पर्दे में शरद पवार निजी रिश्तों का सौजन्य कायम रखते आए हैं।
साथ ही राजनीति में उनका सत्ता के अलावा कभी कोई वैचारिक आग्रह नहीं रहा। इस हिसाब से अजित पवार उसी ‘शरदवाद’ को आगे बढ़ा रहे हैं तो इसमें गलत क्या है? आज शरद पवार अपने सियासी गणित के हिसाब से विपक्ष की राजनीति कर भले कर रहे हों, लेकिन सियासी अक्षत वर्षा करने वाले हर दल में हैं, जिनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शामिल हैं, जो उन्हें ‘शरदराव’ कहते आए हैं। उनकी पार्टी भाजपा तो काफी पहले से विरोधियो के राजनीतिक पिंडदान के लिए राकांपा के ‘काकस्पर्श’ की आस लगाए बैठी थी।
वैसे इस देश में निर्वाचित सरकार को गिराने की ‘रिसॉर्ट पॉलिटिक्स’ के आदि आख्यान की रचयिता भी कांग्रेस ही है, जिसने सबसे पहले 1995 में भाजपा की केशुभाई पटेल की निर्वाचित सरकार को गिराने के लिए भाजपा नेता शंकरसिंह वाघेला के नेतृत्व में बगावत कराई और मप्र के खजुराहो के होटल में बागी विधायकों को रूकवाया। हालांकि, बाद में कांग्रेस के समर्थन से बनी वाघेला की सरकार भी गिर गई और उसी के साथ गुजरात में कांग्रेस स्थायी विपक्ष की भूमिका में चली गई।
अब मोदी-शाह के जमाने में भाजपा ने इस खेल में कांग्रेस को बहुत पीछे छोड़ दिया और इस खेल के अहम कारकों में ‘धन की देवी’ भी जुड़ गई। इससे यह सूत्र भी स्थापित हुआ कि राजनीति में भ्रष्टाचार एवं कथनी और करनी के भेद का महत्व शून्य है। इसकी व्याख्या अपनी सुविधा के हिसाब से कुछ भी की जा सकती है और उसे जायज भी ठहराया जा सकता है। कुतर्कों के रिमोट से इसका चैनल कभी भी ट्यून किया जा सकता है।
आज की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा ने राजनीतिक नैतिकता को ताक में रखकर इस सियासी मतांतरण के सफल प्रयोग कई राज्यों में किए हैं। यानी पहले विधायकों को तोड़ो, उसे या तो अलग गुट के रूप में मान्यता दिलाओ या फिर विधानसभा से इस्तीफा देकर अपने चुनाव चिन्ह पर लड़वा कर जिताओ या फिर ‘आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा’ की तर्ज पर सत्ता की सफारी में बिठा लो। इससे दो निशाने सधते हैं, पहला तो विरोधी पक्ष दोफाड़ हो जाता है, दूसरे साथ लाने और आने वाले दोनो की सत्ताकांक्षा की प्रतिपूर्ति होती है।
भाजपा का प्रयोग
भाजपा के इस प्रयोग को काफी हद तक मतदाता की भी स्वीकृति मिली है। एक और तीसरा तरीका यह है कि पहले तो विरोधियों को भ्रष्टाचार और कदाचार के आरोपों व जांच के शिंकजे में कसो और बाद में पीले चावल भेज दो। महाराष्ट्र में शिवसेना से अलग हुए शिंदे गुट और राकांपा से अलग हुए अजित पवार गुट की कुछ ऐसी ही कहानी है। दरअसल राजनीतिक विरोधियों के ‘इलाज’ का यह नुस्खा इसलिए शर्तिया साबित हो रहा है, क्योंकि भ्रष्टाचार के हमाम में लगभग सभी नंगे हैं या यूं कहें कि अब भ्रष्टाचारियों में भी एक नए तरह का ‘बंधुत्व’ स्थापित हो गया है, जिसकी एकमात्र शर्त ‘अपने खेमे’ में होना है।
देश में इक्कीसवीं सदी की राजनीतिक नैतिकता का दूसरा पहाड़ा थूक कर चाटने का है। इससे भी शायद ही कोई बचा हो। ‘समय की मांग’ इस राजनीतिक रामबाण का ‘एपीआई’ (एक्टिव फार्मास्युटिकल इनग्रेडिएंट, जो तमाम दवाइयों का कच्चा माल होता है)। अगर महाराष्ट्र का ही उदाहरण लें तो आज अजित दादा की प्रशासनिक क्षमता की तारीफ करने वाले देवेन्द्र फडणवीस बतौर मुख्यमंत्री ‘अजित पवार की असली जगह जेल में है’, यह कहते नहीं अघाते थे। उन्होंने अजित पवार के खिलाफ सिंचाई घोटाले में जांच भी बैठाई थी। उधर कल तक ‘आखिरी सांस तक 'मैं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में रहूंगा’, जैसी बनावटी शपथ लेने वाले अजित पवार अब भाजपा के साथ ही अपना राजनीतिक भविष्य देख रहे हैं। कल तक काका शरद पवार को आदर्श मानने वाले भतीजे अजित को देश में नरेन्द्र मोदी से बेहतर कोई नेता नजर नहीं आ रहा है। नैतिक पलटूबाजी का यह फार्मूला जदयू, राजद, कांग्रेस, माकपा, शिवसेना इत्यादि कई दलों पर लागू होता है। जिनके लिए राजनीतिक दुश्मनी केवल रोमांचक वीडियो गेम से ज्यादा कुछ नहीं है।
वैसे अजित पवार के नाम एक रिकॉर्ड और है। वो प्रदेश के पांचवीं बार खुशी-खुशी उपमुख्यमंत्री बने हैं और वो भी सीएम बनने की अदम्य आस में। यह कुछ वैसा ही है कि जैसे बेटे की आस में बेटियां पैदा करते जाना। कहना मुश्किल है कि इस बार उनका डिप्टी सीएम बनना शुभ शकुन है या अपशकुन। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि अजित दादा उपमुख्यमंत्री बने रहने के लिए अभिशप्त हैं।
इस पर पूरा भरोसा न करें तो भी यह हकीकत है कि अजित दादा जिस भी सीएम के उपमुख्यमंत्री बने हैं, उसका राजनीतिक बेड़ा जरूर गर्क हुआ है। फिर चाहे वो पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण हो या फिर उद्धव ठाकरे हो अथवा देवेन्द्र फडणवीस हों ( जिनके साथ चंद दिनों के डिप्टी सीएम रहे)। अब वो एकनाथ शिंदे के मुख्यमंत्रित्व में पांचवी बार डीसीएम बने हैं। उसमें भी उन्हें वित्त मंत्रालय सबसे प्यारा है। ऐसे में सवाल शिंदे के सियासी भविष्य पर लग रहा है।
बहरहाल ‘एकनाथ’ और ‘अजित’ के सहारे देवेन्द्र तथा उनकी पार्टी जिस राजनीतिक संभावनाओं को बूझ रही है, वह अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भारी जीत का ऐसा राजनीतिक च्यवनप्राश है, जिसे महायुति नाम दिया गया है। सत्ता स्वार्थ पर टिकी यह महायुति कितनी कामधेनु साबित होगी, यह आने वाला वक्त बताएगा, क्योंकि महायुति के तीन पहिए वाले इस देसी ऑटो को चलाना भी आसान नहीं है। उधर काकाजी की भी उम्र की ढलान पर है और यह उनकी आखिरी सियासी अग्नि परीक्षा है यानी कि इस पार या उस पार...!अजय बोकिल, लेखक, संपादक
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