यह तीनों ऐसे शब्द है जिस पर कई चर्चाएं होती रहेगी लेकिन कहीं ना कहीं हम सच्चाई से इन बातों पर सोच ही नहीं रहे हैं। भौतिक जिंदगी जीते जीते हम प्राकृतिक तौर पर जीवन जीना भूल गए। प्रकृति ने हमें क्या पर्यावरण दिया और हम उसको क्या रूप दे रहे हैं, क्या उसकी रक्षा कर पा रहे हैं ? और हमारी जीवन शैली से जो हम जो सामाजिक पर्यावरण उत्पन्न कर रहे हैं उसका समाज और आने वाली पीढ़ी क्या असर होगा। विकास मे तो हम इतना आगे जा चुके हैं कि धीरे-धीरे विकास कहीं ना कहीं अब हमें नुकसान पहुंचाने लगा है। चांद मंगल पर जाने की राह तक पहुंच गए परंतु प्रकृति और मौसम के बदलाव से उत्पन्न वायरस को हम पहचान ही नहीं पा रहे हैं। चाहे कितने भी एडवांस टेक्नोलॉजी में आ गए हैं परंतु प्रकृति को आज भी समझ नहीं पा रहा है। कोई ना कोई नई बीमारी हमारे सामने आ जाती है। व्यक्ति जीवन जीने का सच्चा अर्थ समझ नहीं पा रहे हैं, अधिक पैसा कमाने एवं पढ़ाई मे ज्यादा आगे बढ़ने की होड़ से जीवन विमुख है।भौतिकता का दौर ने व्यक्ति को लालची व सेल्फिश बना दिया। मकान बड़ा महंगा से महंगा बनाने की सोचते हैं पर यह नहीं ध्यान देते कि उस मकान में हम रहेंगे तो वह हमारे स्वास्थ्य के लिए कितना फायदेमंद होगा। पारिस्थिति अनुसार बनाए मकान मैं हम स्वस्थ रहेगे, अलग हटकर जाकर मकान बनाते हैं तो कैसे उसमें स्वस्थ रहने की कामना रखें। अशोक मेहता, इंदौर (लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद्) ये लेखक के अपने विचार है I
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वर्तमान समय में टूटते बिखरते समाज को पुनः संगठित करने के लिये जरूरत है उर्मिला जैसी आत्मबल और चारित्रिक गुणों से भरपूर महिलाओं की जो समाज को एकजुट रख राष्ट्र…