मानव जाति ने अपनी फितरत से पृथ्वी के रूप को बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बड़े बड़े डैम बना दिए, बड़ी बड़ी अट्टालिका बिल्डिंगे बना दी, लंबे चौड़े शहरो का जाल बिछा दिया, जबकि इंसान को रहने के लिए एक मकान, खाने के लिए फल फूल और खेती और पहनने के लिए कपड़ा यह आवश्यकता है मात्र। किसी सज्जन को ग्लैमर का शौक लगा होगा तो वहां से कबीले का सरदार बना होगा फिर सरदार बनने के बाद राजा बना होगा, राजा बनने के बाद महाराजा बनना हुआ, महाराजा बनने के बाद चक्रवर्ती राजा बनने लगे उसके बाद लोकतंत्र में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनने लगे इन सब पदों का मुख्य उद्देश्य जनता को सुरक्षित सुनियोजित जीवन देना पर इनके मंत्रिमंडल में कहीं तो इस बात पर कंट्रोल नहीं रहा है कि हमें आविष्कार और विकास चाहिए पर कैसा चाहिए, पृथ्वी का स्वरूप बदल कर विकास नहीं चाहिए। पृथ्वी का स्वरूप वैसा ही रहने दे। हम अपनी बसाहट उसी अनुसार बनाये। हमारा रहन सहन इको सिस्टम के अनुसार रखें। विज्ञान एवं खोज, तरक्की अच्छे जीवन के लिए आवश्यक है पर अत्यधिक अच्छा रहने की इच्छा ही मानव जीवन के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक होती जा रही है। आज हम यदि नहीं जागे और पृथ्वी के स्वरूप को वैसा नहीं रहने दिया तो हम जाने कितने प्रलय देखेंगे और हो सकता है हमारा अस्तित्व ही खत्म हो जाए।
अशोक मेहता, इंदौर (लेखक, पत्रकार, वास्तुविद्) ये लेखक के अपने विचार है I
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