केवल प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है – लाला लाजपत राय
Updated on
28-01-2023 02:12 PM
आजादी के युद्ध के दौरान मशहूर महान स्वतंत्रता सेनानीयों की तिकड़ी “लाल, बाल, पाल” के सदस्य लाला लाजपत राय की आज जन्म जयंती है। 28 जनवरी, 1865 को ग्राम ढुंढिके, ज़िला फ़रीदकोट, पंजाब के एक उर्दू शिक्षक लाला राधाकृष्ण और एक सिक्ख माता के यहाँ जन्मे लाला लाजपत राय ने स्वतंत्रता आंदोलन में कई बड़े आंदोलनों का नेतृत्व किया। क़ानून की शिक्षा प्राप्त कर उन्होने हिसार में वकालत प्रारम्भ की थी। 1882 में स्वामी दयानंद सरस्वती के सम्पर्क में आने के बाद वे आर्य समाज के प्रबल समर्थक बने और उनमें उग्र राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई।
30 अक्टूबर, 1883 को स्वामी दयानन्द के देहांत पश्चात यह तय किया गया कि स्वामी जी की स्मृति में एक शिक्षण संसथान स्थापना की जाये, जिसमें वैदिक साहित्य, संस्कृति तथा हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेज़ी और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान में भी छात्रों को दक्षता प्राप्त कराई जाये। इसकी स्थापना के लिए लाजपत राय ने अथक प्रयास किये, उन्होने लाला हंसराज के साथ मिलकर “दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालयों” का प्रसार किया, जिन्हें आजकल डीएवी स्कूल्स व कालेज के नाम से जाना जाता है।
1897 और 1899 के देशव्यापी अकाल के समय लाजपत राय पीड़ितों की सेवा में जी जान से जुटे रहे। लालाजी ने अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा भी की थी।1901-1908 की अवधि में उन्हें फिर भूकम्प एवं अकाल पीड़ितों की मदद के लिए सामने आना पड़ा। लाला लाजपत राय ने पंजाब में पंजाब नेशनल बैंक और लक्ष्मी बीमा कंपनी की स्थापना भी की थी। उन्होंने हिंदू अनाथ राहत आंदोलन की नींव रखी, ताकि ब्रिटिश मिशन अनाथ बच्चों को अपने साथ न ले जा सकें. साथ ही देश में व्याप्त छूआछूत के खिलाफ भी लंबी जंग लड़ी।
लालाजी का मानना था कि केवल प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है। जब ब्रिटिश युवराज के भारत आगमन पर उनका स्वागत करने का प्रस्ताव आया तो लालाजी ने उनका डटकर विरोध किया। कांग्रेस के मंच ये यह अपनी किस्म का पहला भाषण हुआ था, जिसमें देश की अस्मिता प्रकट हुई थी। 1907 के सूरत अधिवेशन में लाला लाजपत राय ने अपने सहयोगियों के द्वारा राजनीति में गरम दल की विचारधारा का सूत्रपात कर दिया था ।
लाला लाजपत राय जीवनपर्यंत राष्ट्रीय हितों के लिए जूझते रहे। वे उच्च कोटि के राजनीतिक नेता ही नहीं थे, अपितु ओजस्वी लेखक और प्रभावशाली वक्ता भी थे। 'बंगाल की खाड़ी' में तट से हज़ारों मील दूर मांडले जेल में रहते हुए लाला लाजपत राय ने समय का उपयोग लेखन कार्य में किया। 'नेशनल एजुकेशन', 'अनहैप्पी इंडिया' और 'द स्टोरी ऑफ़ माई डिपोर्डेशन' उनकी अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। उन्होंने 'पंजाबी', 'वंदे मातरम्' (उर्दू) और 'द पीपुल' इन तीन समाचार पत्रों की स्थापना करके इनके माध्यम से देश में 'स्वराज' का प्रचार किया। लाला लाजपत राय ने उर्दू दैनिक 'वंदे मातरम्' में लिखा था- "मेरा मज़हब हक़परस्ती है, मेरी मिल्लत क़ौमपरस्ती है, मेरी इबादत खलकपरस्ती है, मेरी अदालत मेरा ज़मीर है, मेरी जायदाद मेरी क़लम है, मेरा मंदिर मेरा दिल है और मेरी उमंगें सदा जवान हैं।" उन्होंने 'तरुण भारत' नामक एक देशप्रेम तथा नवजागृति से परिपूर्ण पुस्तक लिखी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। इसी दौरान उन्होंने 'भारत का इंग्लैंड पर ऋण', 'भारत के लिए आत्मनिर्णय' आदि पुस्तकें लिखीं, जो यूरोप की प्रमुख भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं।
लाला लाजपतराय के नेतृत्व में आजादी का आंदोलन पंजाब में परवान चढ़ा, जिस कारण लाला लाजपतराय को शेर ए पंजाब व पंजाब केसरी के नाम से जाना गया। लाला लाजपत राय युवाओं के प्रेरणा स्रोत थे। 3 फरवरी 1928 को जब साइमन कमीशन भारत आया था तो उसके विरोध में पूरे देश में आग भड़की थी। लाला लाजपतराय ने इसके विरोध में लाहौर में आयोजित बड़े आंदोलन का नेतृत्व किया और उनके नारे 'अंग्रेजों वापस जाओ' ने अंग्रेज हुकूमत को हिला दिला था। इस आंदोलन के दौरान अंग्रेजों द्वारा बरसाई गई लाठियों के वार के कारण लाला लाजपतराय 17 नवंबर 1928 को शहीद हो गए थे। लालाजी ने अपने अंतिम भाषण में कहा था कि ‘मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के कफन की कील बनेगी’ और इन चोटों ने कितने ही ऊधमसिंह और भगतसिंह तैयार कर दिए। लालाजी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने का निर्णय किया। इन जाँबाज देशभक्तों ने लालाजी की मौत के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसंबर, 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। लालाजी की मौत के बदले सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फ़ाँसी की सज़ा सुनाई गई।
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