जबलपुर । औषधीय गुण, सबसे कम फैट, चटखदार काले रंग, हमेशा याद रहने वाले लजीज स्वाद आदि के लिए पहचाने जाने वाले कड़कनाथ प्रजाति के मुर्गा-मुर्गियों की डिमांड इन दिनों काफी बढ़ गई है। आदिवासी बहुल क्षेत्र झाबुआ में पाए जाने वाले कड़कनाथ का पालन जबलपुर सहित संभाग के अन्य जिलों में किया जाना था, लेकिन हर सरकारी योजना की तरह इस योजना ने भी बजट के आभाव में दम तोड़ दिया है। अधिकारियों का कहना है कि योजना का मकसद जहां आदिवासी परिवारों की आय में वृद्धि करना था, तो वहीं कड़कनाथ की घटती प्रजाति बढ़ाना भी बताया जा रहा है।
संभाग के मंडला, डिण्डोरी, बालाघाट, छिंदवाड़ा व जिले के कुण्डम विकास खंड के अंतर्गत आने वाले आदिवासी परिवारों को कड़कनाथ मुर्गा-मुर्गी पालन के लिए चिन्हित किया गया था। संयुक्त संचालक पशु चिकित्सा विभाग ने कुण्डम विकासखंड के चार सौ आदिवासी परिवारों को चिन्हित किया था।
इस संबंध में अतिरिक्त उपसंचालक डॉ आरके कुर्मी ने बताया कि आदिवासियों हेतु कड़कनाथ मुर्गीपालन प्रोजेक्ट के तहत नवाचार के रूप में जबलपुर संभाग में आदिवासियों की आजीविका का साधन बढ़ाने की योजना वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा तैयार की गई थी। पशुपालन विभाग, एकीकृत आदिवासी विकास परियोजना एवं आत्मा परियोजना के तहत प्रोजेक्ट का क्रियान्वयन किया जाना था। उन्होंने बताया कि प्रोजेक्ट के तहत जिले के 400 आदिवासी सामने थी आए, जिन्होंने कड़कनाथ का पालन करने के लिए आवेदन भी किया था। प्रोजेक्ट के तहत प्रत्येक हितग्राही को 30000 रुपए दिए जाना था, लेकिन योजना पर अमल नहीं हो सका और अदिवासियों को इसका लाभ नहीं मिल सका है।
ऐसे तैयार होती इकाई-
प्रोजेक्ट के तहत 100 वर्गफीट में शेड का निर्माण कराए जाने की योजना थी। आदिवासी परिवार को चूजों से लेकर औषधियां तक की व्यवस्था शासन द्वारा की जानी थी। इसके साथ ही टीका द्रव्य, खाना-पानी के लिए बर्तन की व्यवस्था का भी जिम्मा शासन का था।
आदिवासियों की भाषा में मुर्गे का नाम कालीमासी
आदिवासियों की क्षेत्रीय भाषा में कड़कनाथ प्रजाति के मुर्गा-मुर्गीयों को कालीमासी कहा जाता है। इसका मांस, चोंच, कलंगी, जुबान, टांगे, नाखून चमड़ी सभी काले होते है। इसमें प्रोटिन की प्रचूर मात्रा पाई जाती है। वहीं वसा बहुत कम होता है। यही वजह है कि इसे औषधीय गुणो वाला मुर्गा माना जाता है। हृदय व डायबिटीज रोगियों के लिए कड़कनाथ रामबाण का काम करता है।
घटती प्रजाति को देखते हुए हो रहा प्रयोग
डॉ आरके कुर्मी ने बताया कि कड़कनाथ मुर्गों की घटती प्रजाति को देखते हुए यह प्रयोग किया जा रहा है। दरअसल ठंड के दिनों में इस प्रजाति के मुर्गों की डिमांड बहुत अधिक होती है। योजना के प्रथम चरण में सिवनी, बालाघाटा, छिंदवाड़ा, डिण्डौरी, मंडला व जिले के कुण्डम विकास खंड को चुना गया था। योजना से जहां कड़कनाथ मुर्गी एवं मुर्गों का संरक्षण होगा, तो वहीं आदिवासी परिवारों की आय में भी वृद्धि होगी।
कड़कनाथ के है तीन रूप-
कड़कनाथ मुर्गे की प्रजाति के तीन रूप होते है। पहला जेड ब्लैक, इसके पंख पूरी तरह से काले होते हैं। पेंसिल्ड, इस मुर्गे का आकार पेंसिल की तरह होता है। इस शेड में कड़कनाथ के पंख पर नजर आते है। गोल्डन कड़कनाथ, इस मुर्गे के पंख पर गोल्डन छींटे दिखाई देते हैं।
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