दो दिन पहले तक खानदानी कांग्रेसी रहे जितिन प्रसाद के इस तरह भाजपा में शामिल हो जाने के बाद जो ‘उत्तर दलबदल’ सवाल उठ रहे हैं, वो ये कि जितिन के भाजपा में आने से किसको फायदा होगा? जितिन को या भाजपा को, दोनो को, या फिर दोनो को नुक्सान होगा? इन सवालों का जवाब तो विधानसभा चुनाव नतीजो से मिलेगा। लेकिन जानकारों का मानना है कि दलबदल के इस –‘यूपी वेरिएंट’ को दलबदल के उस ‘बंगाल वेरिएंट’ से अलग करके देखना चाहिए, जहां कमल निशान पर चुनाव जीते हुए दलबदलू विधायक अब वापस दीदी के तीन पत्ती वाले झंडे तले लौटने को बेताब बताए जाते हैं। यानी भाजपा को उसी की शैली में जवाब देने दीदी का दूसरा ‘खेला’ शुरू हो चुका है। उधर जितिन प्रसाद के जाने को कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने देश में ‘ प्रसाद राजनीति’ का आगाज बताया है। जो भी हो, कांग्रेस यूपी में इस झटके से हैरान और हताश है तो भाजपा का मानना है कि उत्तर प्रदेश में पनप रहे योगी विरोध को दबाने जितिन प्रसाद को लाना कोरोनिल किट की माफिक साबित होगा। अब जितिन भाजपा के लिए ‘यूपी के ज्योतिरादित्य सिंधिया’ सिद्ध होंगे ( दोनो दून स्कूल में पढ़े बताए जाते हैं) या नहीं, यह अंदाज अभी लगाना मुश्किल है। उधर एक बार िफर सियासी चोट खाई कांग्रेस में ‘बड़ी सर्जरी’ की बात उठ रही है। लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि यह सर्जरी करे कौन? क्योंकि पूरी पार्टी नियतिवाद के भरोसे है। यूं कहने को हार के कारणों और पार्टी में सुधार की रिपोर्टे जमा हो रही हैं, सुलह सफाई की कोशिशें भी जारी हैं, लेकिन उनकी दशा भी किसी न्यायिक जांच आयोग की तरह है।
बहरहाल बात जितिन प्रसाद की। जितिन उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की उस जमात का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो पुश्तैनी कुलीन है। उनका नाम ‘जितिन’ क्यों रखा गया, इसका खुलासा नहीं होता। लेकिन यह नाम उनके पिता और बड़े कांग्रेस नेता रहे जितेन्द्र प्रसाद से काफी मेल खाता है। खास बात यह कि यह परिवार शायद अन्य ब्राह्मणो (समाजवादियों और कम्युनिस्टों को छो़ड़कर) अपना असली उपनाम शायद नहीं लिखता। यकीनन प्रसाद परिवार खानदानी तौर पर सम्पन्न और प्रभावशाली परिवार रहा है। 47 वर्षीय जितिन के परदादा ज्वाला प्रसाद ब्रिटिश राज में सिविल सर्वेंट थे। उनकी पत्नी पूर्णिमा देवी महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी थीं। जितिन के दादा ज्योति प्रसाद भी कांग्रेस के बड़े नेता रहे। उन्होंने एक सिख महिला पामेला से शादी की थी। जितेन्द्र प्रसाद पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी और स्व.पी.वी.नरसिंह राव के राजनीतिक सलाहकार रहे। उन्होने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए श्रीमती सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा और हारे। यानी कांग्रेस में वंशवाद को शीर्ष स्तर पर चुनौती देने वाले वो आखिरी नेता थे। बावजूद इसके 2004 में जब कांग्रेसनीत यूपीए गठबंधन सत्ता में आया तो सोनिया गांधी की सहमति से केन्द्र में जितिन को मानव संसाधन राज्य मंत्री बनाया गया। जितिन भी केवल एक बार ही चुनाव जीत पाए हैं, ज्यादातर हारे हैं। उत्तर प्रदेश में जातिवादी राजनीति के उभार के बाद सियासी समीकरण लगातार बदलते गए और कांग्रेस हाशिए पर चली गई। वो कांग्रेस, जिसमें कभी ब्राह्मणों का बोलबाला था, अभी भी यूपी में अपनी खोई जमीन तलाश रही है। मंडल और कमंडल आंदोलन ने यूपी में सत्ता की चाभी पिछड़ों और दलितों के हाथ में दे दी। ब्राह्मणो के हाथ में केवल चंवर डुलाने का काम बचा। हालांकि अटलजी तक ब्राह्मणों में एक भीतरी आत्मसंतोष फिर भी था। मोदी युग में वो भी जाता रहा। नतीजा यह हुआ कि कुछ ब्राह्मण नेता अपना राजनीतिक वजूद बचाने भाजपा या कुछ दूसरे दलों में जाने लगे।
जितिन प्रसाद प्रकरण उसी श्रृंखला की ताजा कड़ी है। अब विधानसभा चुनाव में जितिन ब्राह्मणों के जमीर को भाजपा के पक्ष में कितना जगा पाएंगे, यह देखने की बात है। लेकिन बीजेपी तो कम से कम यही मान रही है कि सीएम कोई बने, ब्राह्मणों की वकत रहेगी, यह दिलासा जितिन के भाजपा में आने से बनेगा। लेकिन यह भी हकीकत है कि मोटे तौर पर हिंदूवादी और आत्मश्रेष्ठत्व के आग्रही ब्राह्मणों को दूसरे समुदायों की तरह राजनीतिक रेवड़ की माफिक हांका नहीं जा सकता। इसका एक कारण यह भी है कि सदियों से ब्राह्मण ‘स्व’ से आगे भी कुछ सोचते देखते रहे हैं। यह इस समुदाय का नैसर्गिक गुण है। ऐसे में जितिन के कहने भर से विधानसभा चुनाव में वोट भाजपा के पक्ष में पड़ने लगेंगे, ऐसा मान लेना खुशफहमी ज्यादा होगी। कुछ कांग्रेसियों का मानना तो यह भी है कि जितिन को उनकी वास्तविक हैसियत से ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर प्रोजेक्ट किया जा रहा है। गरीब और मध्यउमवर्गीय ब्राह्मणों से उनका कितना राब्ता है, यह देखने की बात है।
यह सच है कि कांग्रेस में रहते हुए जितिन प्रसाद ने यूपी के ब्राह्मणों को गोलबंद करने की काफी कोशिशें की थी। क्योंकि हमारे देश में जाति-आधार नेता के जनाधार की भी जमानत है। यह बात अलग है कि जितिन की इन कोशिशों से तब कांग्रेस ने ही पल्ला झाड़ लिया था। हो सकता है कि जितिन ने तब ‘ब्राह्मण चेतना परिषद’ के माध्यम से ब्राह्मणों में जो सत्ता चेतना जगाई थी, उसका सकारात्मक फल अब भाजपा को मिले।
यह तो शुरूआत है। गहराई से देखें तो 2014 के बाद से हर चुनाव के पहले भाजपा दूसरे दलों के नगीनो को अपनी अंगूठी में जड़ने का अभियान चलाती है, भले ही इसका उसे अपेक्षित लाभ मिले न मिले। लेकिन इससे एक माहौल तो बनता है और राजनीतिक दुश्मन के खेमे में हताशा का संक्रमण बढ़ने की संभावना बनती है। हालांकि क्षेत्रीय दलो के कुछ क्षत्रपो ने विधानसभा चुनावों में भाजपा की इस रणनीति को कई बार फेल भी किया है। फिर भी भाजपा इसे चुनावी जीत का रामबाण उपाय मानती है। सो यही खेल उस यूपी में शुरू हो गया है, जहां आठ माह बाद विधानसभा चुनाव होने हैं। अंदरूनी स्तर पर स्वयं भाजपा और आरएसएस योगी आदित्यनाथ के चुनाव जिताऊ परफार्मेंस को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। याद करें कि सीएम बनने के बाद योगी उपचुनाव में अपनी ही लोकसभा सीट हार गए थे। जमीनी हकीकत यही है कि योगी को मुख्यामंत्री बनाने से देश-दुनिया में भले हिंदुत्व का संदेश गया हो, लेकिन खुद उत्तर प्रदेश में लोगों ने उसे ‘ठाकुर राज की वापसी’ के रूप में ही ज्यादा पढ़ा है। इससे सर्वाधिक दुखी वो ब्राह्मण समाज हुआ, जो उत्तर प्रदेश में अपने राजनीतिक-प्रशासनिक वर्चस्व को नैसर्गिक अधिकार मानता आया है। यूं कहने को योगी कैबिनेट में उप मुख्यंमंत्री और कुछ प्रशासनिक पदों पर भी ब्राह्मण तैनात हैं, लेकिन उनकी अहमियत उतनी ही है कि जितनी कि भाजपा में मुस्लिम चेहरों की होती है। ऐसे में भाजपा को डर सता रहा है कि यदि 15 फीसदी ब्राह्मण वोटरों ने विधानसभा चुनावों में भाजपा से मुंह मोड़ लिया तो सत्ता में वापसी मुश्किल होगी। क्योंकि किसान आंदोलन के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट पहले ही नाराज हैं। अगले चुनाव में यदि पिछड़ा-ब्राह्मण जैसा कोई समीकरण बन गया तो वो योगी के लिए दु:स्वप्न की तरह होगा। भाजपा ऐसा कभी नहीं होने देना चाहेगी। क्योंकि उत्तर प्रदेश से ही दिल्ली की सत्ता का द्वार भी खुलता है। यहां बेडा गर्क होने का सीधा मतलब 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के सपनों पर चोट पड़ने जैसा होगा।
सो, मानकर चलिए कि बीजेपी ने यूपी के साथ-साथ परोक्ष रूप में अगले लोकसभा चुनाव की जमावट भी शुरू कर दी है। जितिन इसमें अहम मोहरा हो सकते हैं। इसके विपरीत जितिन के जाने से कांग्रेस में आंतरिक आक्रोश और बढ़ रहा है, युवा पार्टी की छुक छुक गाड़ी से उतरने को बेताब हैं तो वरिष्ठ पार्टी में बड़े आॅपरेशन की मांग कर रहे हैं और अंदरखाने दूसरी पार्टियों में सीट भी तलाश रहे हैं। दरअसल पार्टी में यह खदबदाहट वास्तव में नेतृत्व की निष्क्रियता और किंकर्तव्यविटमूढ़ता से जन्मी है। यानी लोग एक-एक कर पार्टी को अलविदा कह रहे हैं, लेकिन कहीं कोई जवाबी किलेबंदी नहीं, कोई मोर्चा बंदी नहीं। ‘जाता है तो जाने दो’ का उदारमना भाव। साथ में यह गलतफहमी कि सब चले गए तो भी पार्टी बची रहेगी। पार्टी के कर्ता धर्ता केवल यह देखने कि भई, अब कौन-कौन और कब-कब जा रहा है तथा यह टैग लगाने में मगन हैं कि जो गया वो ‘दगाबाज’ था। इस बीच पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली ने जितिन को ‘संदिग्ध कांग्रेसी’ बताते हुए अहम बात कही कि' 'कांग्रेस को बड़ी सर्जरी कराने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि क्षमता और जनाधार वाले लोगों को विभिन्न राज्यों का प्रभार दिया जाना चाहिए। बात पते की है, लेकिन उसे सुनेगा कौन और अमल करेगा कौन? जनाधार ही कांग्रेस की दुखती रग है। जिन कारणों से वह घट रहा है, वो कारण भी खुद को इसका कारण नहीं मानते। यानी वही ढाक के तीन पात। चूंकि जनाधार कम हो रहा है, इसलिए पार्टी हाशिए पर है और हाशिए पर जाने को ही पार्टी नियति मान रही है, इसलिए जनाधार घट रहा है। रहा सवाल जितिन प्रसाद का तो वो जब ब्राह्मणों को कांग्रेस खेमे में तो नहीं लौटा पाए थे तो विधानसभा चुनावों में भाजपा के शामियाने में कितना खींच पाएंगे, यह वक्त बताएगा। लेकिन जितिन को अपने पाले में खींच कर भाजपा ने मनोवैज्ञानिक युद्ध का पहला मोर्चा फतह कर लिया है, इसमे शक नहीं।
अजय बोकिल, लेखक
वरिष्ठ संपादक, ‘राइट क्लिक’ ये लेखक के अपने विचार है I
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