आदि शक्ति महिषासुर मर्दिनी👉 एक बार महिषी के गर्भ से उत्पन्न शक्तिशाली महिषासुर ने देवताओं को परस्त कर तीनों लोकों पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था। उसने सभी लोकपालों को हटा दिया और स्वर्ग से देवताओं को भी भगा दिया। सभी देवता घबराकर ब्रह्मा, विष्णु और शिव की शरण में गए। सभी ने महिषासुर का सब वृत्तांत कहा सुनाया तथा उसके वध के निमित्त कोई उपाय करने की प्रार्थना की। तब भगवान् विष्णु के मुख से हजारों सूर्यों के समान कांतिमय दिव्य तेज उत्पन्न हुआ। इसके पश्चात, नाना देवताओं के शरीर से तेज पुंज निकले का क्रम प्रारंभ हुआ, इन्द्रादि सभी देवताओं के शरीर से देवाधिपतियों को प्रसन्न करने वाला तेज निकला, भगवान् शिव के शरीर से जो तेज निकला, उससे मुख बना, यमराज के तेज से केश बने तथा भगवान् विष्णु के तेज से भुजाएं बनी, चन्द्रमा के तेज से दोनों स्तन, इंद्र के तेज से कटि प्रदेश, वरुण के तेज से जंघा और उरु उत्पन्न हुए, पृथ्वी के तेज से दोनों नितम्ब, ब्रह्माजी के तेज से दोनों चरण, सूर्य के तेज से पैरों की अंगुलियां तथा वसुओं के तेज से हाथों की अंगुलियों का निर्माण हुआ। कुबेर के तेज से नासिका, प्रजापति के तेज से दन्त पंक्ति, अग्नि के तेज से तीनों नेत्र, संध्या के तेज से भृकुटियां, वायु के तेज से दोनों कान उत्पन्न हुए। इसके बाद शिवजी ने उन्हें अपना शूल, विष्णुजी ने चक्र, अग्नि ने शक्ति, वायु ने धनुष तथा बाण, वरुण ने शंख, इंद्र ने वजरास्त्र तथा अपने श्रेष्ठ हाथी का घंटा, काल ने तलवार तथा ढाल, समुद्र ने हार तथा कभी जीर्ण न होने वाले दो वस्त्र, चूड़ामणि, कुंडल, कटक, बाजूबंद, अर्ध चन्द्र, नूपुर इत्यादि आभूषण तथा ब्रह्माजी ने अक्षर माला तथा कमंडल, उन शक्ति को प्रदान की। विश्वकर्मा ने देवी को अंगुठियां, हिमालय राज ने देवी को वहां स्वरूप सिंह तथा नाना प्रकार के रत्न, धनपति कुबेर ने उन्हें उत्तम सुरा से भरा एक पात्र तथा शेष नागजी ने देवी को नाग हार सहर्ष प्रदान किया। सभी देवताओं ने भी जगन्माता आद्या शक्ति को सम्मानित किया। इसके बाद समस्त देवों ने मिलकर जगत उत्पत्ति की कारणस्वरूपा देवी की नाना स्तोत्रों से उत्तम स्तुति की। उन देवताओं की स्तुति सुन कर देवी ने घोर गर्जना की, वो विकराल गर्जन महिषासुर को भी चकित कर गया तथा तक्षण ही वो अपनी सेना के साथ देवी से युद्ध करने हेतु पहुंचा। देवी तथा महिषासुर के मध्य युद्ध छिड़ गया। महिषासुर अपने प्रधान सेनापति चिक्षुर तथा दुर्धर, दुर्मुख, बाश्कल, ताम्र तथा विडालवदन जैसे यम-राज के समान भयंकर योद्धाओं से घिरा हुआ था। देवी क्रोध से आंखें लाल कर, सभी योद्धाओं को मार डाला। इसके बाद महिषासुर क्रोध और भय से ग्रस्त होकर देवी की दौर दौड़ा और महिषासुर नाना प्रकार के मायावी रूप धर देवी से युद्ध करने लगा तथा देवी ने भी उन सभी मायावी रूपों को नष्ट कर दिया तथा अंत में अपने खड़ग से महिषासुर का सर काट दिया। इस प्रकार वह महिषासुर मर्दिनी नाम से प्रसिद्ध हुई।
शुम्भ-निशुम्भ, चंड-मुंड और धूम्रक्ष एवं रक्त बीज का वध करने वाली देवी👉 शुम्भ तथा निशुम्भ नाम के दो असुर भाई भंयकर अत्याचारी थे। अपने अपार बल से उन्होंने तीनों लोक पर अपना राज स्थापित कर देवताओं को अमरावती पुरी से निकाल दिया। उनकी सेना में ही धूम्रक्ष, चंड, मुंड और रक्तबीज जैसे महाबलशाली असुर थे। शुम्भ-निशुम्भ के आतंक से भयभित होकर समस्त देवताओं ने हिमालय पर जाकर शरण ली। वहां पर उन्होंने सर्व मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली आदिशक्ति देवी की स्तुति की। देवताओं की स्तुति करने पर माता गौरी देवी अत्यंत प्रसन्न हुई तथा देवताओं से पूछा कि अप लोग किसकी स्तुति कर रहे हैं? देखते ही देखते शिवा देवी के शरीर से एक कुमारी कन्या का प्राकट्य हुआ तथा कुमारी कन्या ने देवी शिवा को कहा कि शुम्भ तथा निशुम्भ नमक दैत्यों से प्रताड़ित ये सब आप की ही स्तुति कर रहे हैं। उस कन्या का प्रादुर्भाव शिवा से हुआ तथा वो कौशिकी नाम से विख्यात हुई। कौशिकी ही साक्षात् शुम्भ का वध करने वाली सरस्वती हैं तथा उन्हें ही उग्र तारा या महोग्रतारा कहा गया हैं। देवी कौशिकी ने देवताओं से कहा, तुम लोग निर्भय हो जाओं। मैं स्वतंत्र हूं, बिना किसी सहारे के मैं तुम लोगों का कार्य सिद्ध कर दूंगी तथा तक्षण ही वहां से वह अंर्तध्यान हो गई।
तदनंतर एक दिन शुम्भ तथा निशुम्भ के सेवक चण्ड तथा मुंड ने देवी के स्वरूप को देखा, उनका मनोहर रूप को देख कर वो चकित हो कर सुध-बुध खो बैठे। दोनों ने जाकर अपने स्वामी को कहा, एक अपूर्व सुंदरी हिमालय पर रहती हैं तथा सिंह पर सवारी करती हैं। यह सुन कर शुम्भ ने अपने दूत सुग्रीव को देवी के पास प्रस्ताव देकर भेजा तथा प्रयत्न पूर्वक देवी को ले आने की आज्ञा दी। दूत देवी के पास गया तथा कहा कि देवी! दैत्यराज शुम्भ, अपने महानबल तथा विक्रम के लिए तीनों लोकों में विख्यात हैं तथा उनका छोटा भाई निशुम्भ भी समान प्रतापी हैं। शुम्भ ने मुझे तुम्हारे पास दूत बना कर भेजा हैं। शुम्भ ने जो सन्देश दिया हैं उसे सुनो! मैंने युद्ध में इंद्र आदि देवताओं को पराजित कर, उनसे समस्त रत्नों का हरण कर लिया हैं, यज्ञ में दिया हुआ देव भाग में स्वयं ही भोगता हूं। तुम स्त्रियों में रत्न हो तथा सब रत्नों की शिरोमणि हो, तुम कामजनित रस के साथ मुझे या मेरे भाई को अंगीकार करो। यह सुनकर कौशिकी देवी ने कहा, 'तुम्हारा कथन असत्य नहीं हैं, परन्तु मैंने पूर्व में एक प्राण लिया हैं उसे सुनो! जो मेरा घमंड चूर कर, मुझे युद्ध में जीत लेगा, उसी को में अपने स्वामी रूप में वरण कर सकती हूं, यह मेरा दृढ़ प्रण हैं। तुम शुम्भ तथा निशुम्भ को मेरी यह प्रतिज्ञा बता दो, तदनंतर इस विषय में वो जैसा उचित समझें करें। देवी का ऐसा वचन सुन कर, दूत सुग्रीव वापस शुम्भ के पास चला आया तथा उसने देवी का संदेश सुना दिया। दूत की बातें सुन कर शुम्भ कुपित हो उठा तथा अपने श्रेष्ठ सेनापति धूम्राक्ष को हिमालय पर जा कर, देवी जिस भी अवस्था पर हो ले आने के लिए कहा। दैत्य धूम्राक्ष हिमालय पर जा, भगवती भुवनेश्वरी से कहां- मेरे स्वामी के पास चलो नहीं तो में तुम्हें मार डालूइगा। देवी ने कहा- युद्ध के बिना मेरा शुम्भ के पास जाना असंभव हैं, यह सुनकर धूम्राक्ष देवी को पकड़ने के लिए दौड़ा, लेकिन देवी ने 'हूं' के उच्चारण मात्र से उसे भस्म कर दिया। धूम्राक्ष को मस्म करने के आरण देवी धूम्रलोचन और धूमावती कहलाई। धूम्रक्ष की मृत्यु का समाचार पा कर शुम्भ बड़ा ही कुपित हुआ तथा उसने चण्ड एवं मुंड तथा रक्तबीज नामक असुरों को देवी के पास भेजा। दानव गणों ने, देवी के सन्मुख जा शीघ्र ही शुम्भ के पास जा कर उसे पति बनाने का आदेश दिया, अन्यथा गणों सहित मार डालने का भय दिखाया। देवी ने कहा कि में सदाशिव के सूक्ष्म प्रकृति हूं, फिर किसी दूसरे की पत्नी कैसे बन सकती हूं। दैत्यों या तो तुम अपने अपने स्थानों को लौट जाओ अन्यथा मेरे साथ युद्ध करो। तब युद्ध हुआ चण्ड तथा मुंड का वध करने पर देवी चामुंडा नाम से विख्यात हुई और रक्तबीज का वध देवी कालीका ने किया। इस प्रकार शुम्भ को जब ये समाचार प्राप्त हुआ तो उसने दुर्जय गणों को युद्ध के लिए भेजा। कालक, कालकेय, मौर्य, दौर्ह्रद तथा अन्य असुरगण भरी सेना को साथ ले कर, दोनों भाई शुम्भ तथा निशुम्भ रथ पर आरूढ़ हो देवी से युद्ध करने के लिए निकले। हिमालय पर्वत पर खड़ी हुई देवी को देख कर सभी उनकी और दौड़ें और युद्ध करने लगे। देवी कालिका तथा उनकी सहचरियों ने दैत्यों को मरना शुरू कर दिया तथा देवी के वाहन सिंह ने भी कई दैत्यों का भक्षण कर लिया। दैत्यों के मारे जाने के कारण, रण-भूमि में रक्त की धार, नदिया बहने लगी। घोर युद्ध छिड जाने पर, दैत्यों का महान संहार होने लगा, देवी ने विष में बुझे हुए तीखे बाणों से निशुम्भ को मार कर धराशायी कर दिया। अपने भाई निशुम्भ के मारे जाने पर शुम्भ क्रोध से भर गया तथा अष्ट भुजाओं से युक्त हो देवी के पास आकर युद्ध करने लगा। बड़ा भयंकर दृश्य उपस्थित हुआ। चंडिका ने त्रिशूल से शुम्भ पर प्रहार किया, जिससे वो पृथ्वी पर गिर गया। शूल के आघात से होने वाली व्यथा को सहकर, शुम्भ ने 10 हजार भुजाएं धारण कर ली तथा चक्र द्वारा देवी के वाहन सिंह तथा देवी पर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया तथा देवी ने खेल-खेल में उन चक्रों को विदीर्ण कर दिया। तदनंतर, देवी ने त्रिशूल के प्रहार से असुर शुम्भ को मार गिराया।