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क्या संस्कृति से सम्बन्धित राजनीति पर पुनर्विचार जरूरी है?

Updated on 20-01-2021 10:39 PM
उसूलों की खातिर कोई भी पुरस्कार या लाभ ठुकराना नई बात भले न हो, लेकिन दुर्लभ जरूर है। देश में किसान आंदोलन और वैक्सीन राष्ट्रवाद के हल्ले के बीच एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक घटनाक्रम को राष्ट्रीय मीडिया में खास तवज्जो नहीं मिली। यह था जाने-माने मराठी दलित लेखक, कवि, आलोचक डाॅ.यशवंत मनोहर द्वारा उन्हें दिया जाने वाला विदर्भ साहित्य संघ का ‘जीवन व्रती पुरस्कार’ ठुकराना। यशवंत ने यह पुरस्कार इस बिना पर लेने से इंकार किया‍ कि आयोजक पुरस्कार समारोह के मंच पर देवी सरस्वती की प्रतिमा रखने वाले थे। यशवंत का कहना था कि सरस्वती की प्रतिमा केवल एक वैदिक कल्पना है। वो ऐसी किसी देवी को वो नहीं मानते। कोई ‘देवी’ हो भी सकती है तो आयोजकों को स्त्री शिक्षा की अलख जगाने वाली सावित्री बाई फुले की प्रतिमा रखनी चाहिए। उधर आयोजको ने साहित्यकार यशवंत की इस शर्त को मानने से यह कहकर इंकार किया कि मंच पर प्रज्ञा की देवी सरस्वती की प्रतिमा रखना उनकी परंपरा है। संघ के लोगो ( प्रतीक चिह्न ) में भी विदर्भ का ‘सारस्वती जन्म भू:’ के रूप में उल्लेख है। इसलिए इसे हटाना असंभव है। हालांकि संघ ने यशवंत के फैसले का सम्मान करते हुए नसीहत भी दी कि उन्हें अपने मूल्यों पर अडिग रहने के साथ-साथ दूसरों के आदर्शों का  भी सम्मान करना चाहिए। खास बात यह है कि इस घटनाक्रम के मराठी साहित्य जगत में जातीय कटुता के बजाए नई बौद्धिक बहस छिड़ गई है कि साहित्यकार यशवंत का फैसला कितना उचित है? वैचारिक प्रतिबद्धताअों को किस सीमा तक विस्तार दिया जाना चाहिए? क्या यशवंत अपने सिद्धांतो पर कायम रहते हुए भी ये पुरस्कार वो स्वीकार कर सकते थे या नहीं? क्या समाज में वैचारिक सामंजस्य का भी कोई बिंदु हो सकता है या नहीं? और यह भी कि क्या संस्कृति से सम्बन्धित राजनीति पर पुनर्विचार जरूरी है?  इन सवालों पर लोगों की अलग- अलग रायें हैं। कुछ का कहना है कि यशवंत को पुरस्कार स्वीकार करना चाहिए था, क्योंकि यह पुरस्कार उनके साहित्यिक अवदान के लिए है। इसमे देवी सरस्वती कहीं आड़े नहीं आती। चाहते तो वो मंच पर सरस्वती प्रतिमा पर माल्यार्पण से इंकार कर सकते थे। एक वर्ग का मानना है कि यशवंत ने पुरस्कार ठुकरा कर ठीक किया, क्योंकि परोक्ष रूप से भी सरस्वती को देवी स्वीकार करना हिंदू प्रतीकों को मान्य करना होता, जिसके यशंवत घोर विरोधी हैं। यह पुरस्कार प्रदान समारोह मकर संक्रांति पर होना था, जो विदर्भ साहित्य संघ का स्थापना दिवस भी है।
पहले विदर्भ साहित्य संघ की बात। विदर्भ भले आज महाराष्ट्र राज्य का हिस्सा हो, लेकिन उसकी अपनी अलग सांस्कृतिक चेतना और पहचान रही है। विदर्भ साहित्य संघ की स्थापना 1923 में अण्णासाहब खापर्डे ने की थी। तब से अब यह संगठन मराठी साहित्यिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने और उन्हे पुरस्कृत करने का बड़ा मंच रहा है। संघ साहित्य सम्मेलनों का आयोजन करता है, जिनमें आदिवासी और दलित साहित्य भी शामिल है। संघ साहित्य के विभिन्न अनुशासनों व अवदान के लिए करीब दो दर्जन पुरस्कार व सम्मान भी देता है। इन्हीं में से एक है, ‘जीवन व्रती पुरस्कार’ (लाइफ टाइम अचीवमेंट अवाॅर्ड)। पूर्व में यह पुरस्कार मराठी के उन प्रख्यात साहित्यकारों को दिया गया है, जो विदर्भ से ताल्लुक रखते हैं और जिनका मराठी साहित्य में असाधारण योगदान है। ऐसे पुरस्कृत साहित्यकारों में प्रख्यात मराठी नाटककार महेश एलकुंचवार, कवि सुरेश भट, लेखक आलोचक राम शेवालकर आदि शामिल हैं। इस बार संघ ने यह पुरस्कार डाॅ.यशवंत मनोहर को देने का निर्णय लिया था। बताया जाता है कि यशवंत पुरस्कार स्वीकारने की यह शर्त रखी थी कि मंच पर सरस्वती की प्रतिमा न हो। लेकिन आयोजको ने इस शर्त को मानने से साफ इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि अब तक किसी भी पुरस्कृत प्रतिभा ने न तो ऐसी कोई शर्त रखी और न ही सरस्वती प्रतिमा पर आपत्ति जताई।
यशवंत मनोहर घोर बुद्धिवादी,धर्मनिरपेक्षतावादी,अंबेडकरवादी स्थापित दलित लेखक हैं। 77 वर्षीय यशवंत को कवि के रूप में ख्याति उनके पहले काव्य संग्रह ‘ ‘उत्थानगुंफा’ (1977) से मिली। बेहद गरीब परिवार में जन्मे यशवंत ने अपनी मेहनत से उच्च शिक्षा प्राप्त की। मराठी भाषा के प्रोफेसर बने। अब तक उनके 12 काव्य संग्रह, 16 निबंध संग्रह, दलित साहित्य पर 10 पुस्तकें और 19 साहित्य आलोचना संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनके अलावा तीन उपन्यास, एक यात्रा वर्णन तथा पत्र संग्रह भी प्रकाशित हुए है। उनके साहित्य का अंग्रेजी व कई भारतीय भाषाअोंमें अनुवाद हो चुका है। मराठी साहित्य में उनकी एक अलग पहचान है।
जाहिर है कि विदर्भ साहित्य संघ जिन हस्तियों को ‘जीवन व्रती पुरस्कार’ देता है, उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता जो भी हो,साहित्यिक प्रतिभा पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। लेकिन साहित्यकार यशवंत ने पहली बार अपने उसूलों को पुरस्कार के ऊपर रखते हुए कहा कि मैं अपने मूल्यों के खिलाफ नहीं जा सकता। उन्हें कम करके इस पुरस्कार को स्वीकार नहीं कर सकता। इसलिए मैंने पुरस्कार स्वीकारने से इंकार कर दिया। ‘ यशवंत ने कहा कि मैं धर्मनिरपेक्षता का पालन करता हूं। मुझे इस बात का आभास था कि एक लेखक के रूप में विदर्भ साहित्य संघ को मेरी स्थिति के बारे में पता होगा। हम साहित्यिक कार्यक्रम के मंच पर सरस्वती के बजाए सावित्री बाई फुले या भारतीय संविधान या फिर प्रख्‍यात मराठी साहित्यकार पु.ल.देशपांडे या कुसुमाग्रज की की तस्वीर क्यों नहीं लगा सकते? यशवंत के फैसले पर विदर्भ साहित्य संघ के अध्यक्ष मनोहर म्हैसलकर ने कहा कि वे डॉ. यशवंत मनोहर के सिद्धांतों का सम्मान करते हैं, लेकिन उन्हें भी परंपराओं का सम्मान करना चाहिए।
कवि यशवंत ने अपने फैसले को सही ठहराते हुए बीबीसी मराठी को दिए एक इंटरव्यू में कहा- ‘मेरा फैसला विदर्भ साहित्य संघ या किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं है। यह मूल्यों और सिस्टम के बारे में है। मैं भारत और महाराष्ट्र में प्रबुद्धता का प्रतिनिधि हूं। यह मेरे अपने सिद्धांतों के खिलाफ होगा, यदि मैं एक ऐसे मंच पर पुरस्कार स्वीकार करता हूं, जहां सरस्वती की प्रतिमा रखी जाती है। यशवंत ने साफ कहा कि मैं भारतीय प्रबुद्धता और ‍परिवर्तन के आंदोलन का यात्री हूं। मैं आपके लिए नहीं बदलने वाला। आपको मेरे लिए बदलना चाहिए। हम सभी को सबके हित में बदलना चाहिए। उधर विदर्भ साहित्य संघ का कहना है कि यशवंत को यह बात पहले ही स्पष्ट करनी चाहिए थी। वो संस्था के आजीवन सदस्य हैं और छह साल तक संघ की कार्यकारिणी में भी रहे। उन्हें संघ की परंपराअों के बारे में सब पहले से पता था।
साहित्यकार यशवंत का यह फैसला कितना नैतिक, तार्किक और मूल्यनिष्ठ है, इस बारे में साहित्यकारों में मतभेद हैं। दलित ‍कवियित्री डाॅ. प्रज्ञा दया पवार का मानना है कि यशवंत के फैसले का सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन इस पर होने वाली राजनीति से मैं सहमत नहीं हूं। फिलहाल हमें सरस्वती के अमूर्त प्रतीक के बजाए भयानक फासीवाद के वास्तविक और समकालीन संस्करण से लड़ने की ज्यादा जरूरत है। मराठी लेखक अनवर राजन का कहना है सहमति देने के बाद पुरस्कार लेने से इंकार करना अपमानजनक है। मराठी के युवा साहित्यकार श्रीरंजन आवटे ने बड़ी मार्के की बात कही। उन्होंने कहा कि अगर हम प्रतीकों का बतंगड़ बनाएंगे तो प्रमुख मुद्दों से भटक जाएंगे। ये एक ‘बैलेंसिंग एक्ट’ है। बाबासाहेब ने हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म स्वीकारा। ये शोषण के प्रतीकों को नकार कर एक नए सांस्कृतिक विकल्प को व्यक्त करने का एक दृढ़ मौलिक प्रयास था। लेकिन, आज, जब सांस्कृतिक राजनीति का केन्द्र दक्षिणपंथ की ओर झुका हुआ है, तो हमें सांस्कृतिक राजनीति पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है। दूसरी तरफ बहुत से लोगों का मानना है ‍िक सरस्वती बौद्धिक चेतना और कला की सनातन देवी हैं। उन्हें धर्म विशेष से जोड़कर देखना संकुचित सोच है।
कवि यशवंत की सोच से बहुत से लोग असहमत हो सकते हैं। लेकिन उनकी सृजनात्मक प्रतिभा को नकारा नहीं जा सकता। यशवंत की कविता के बारे में माना जाता है कि वह अपने न्यायसंगत अधिकार के लिए लड़ने की प्रेरणा देती है। वो जाति, धर्म, वंश, देश की सीमा के परे परिवर्तनवाद, विज्ञानवाद और सामाजिक पुर्नसंरचना की बात करती है। और हर प्रकार की अमानुषता के खिलाफ युद्ध का आवाह्न करती है। बतौर बानगी उनकी यह कविता ‘कई बार’ (खूपदा) ( यह उसका हिंदी अनुवाद है) देखें-
मैंने सुरंगों पर चलकर देखा
ज्वालामुखी पर खिलकर देखा
मुझे नकारने वाला जीवन मैंने जीकर देखा
मैंने जलते सूर्य को सीने से लगाकर देखा
मैंने सुखों को कई बार दुख पहुंचा कर देखा
कई जख्‍मों ने मेरे ऊपर आशियाने बना डाले
मैंने कई बार जीये बगैर जीकर देखा।
अजय बोकिल,लेखक                                                  ये लेखक के अपने विचार है I
वरिष्ठ संपादक, ‘राइट क्लिक’
वरिष्ठ संपादक,‘सुबह सवेरे’ 


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