श्रीराधाजी की स्तुतियों में श्रीराधा कृपाकटाक्ष स्तोत्र का स्थान सर्वोपरि है। इसीलिए इसे ‘श्रीराधा कृपाकटाक्ष स्तवराज’ नाम दिया गया है अर्थात् स्तोत्रों का राजा।
अर्थ - मुनीन्द वृंद जिनके चरणों की वंदना करते हैं तथा जो तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं मुस्कानयुक्त प्रफुलिलत मुख कमलवाली,निकुंज भवन में विलास करनेवाली,राजा वृषभानु की राजकुमारी,श्रीब्रज राजकुमार की ह्दयेश्वरी श्रीराधिके!कब मुझे अपने कृपा कटाक्ष का पात्र बनाओगी ?
अर्थ - अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए 'लता मंदिर' में विराजमान और मूँगे अग्नि नवीन लाल पल्लवों के समान अरूण कांतियुक्त कोमल चरणोंवाली,भक्तों को अभीष्ट वरदान देनेवाली तथा अभयदान देने के लिए उत्सुक रहनेवाले कर कमलों वाली अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी श्री राधे मुझे कब अपने कृपा कटाक्ष का अधिकारी बनाओगी.
अर्थ- प्रेम कीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में बाँकी भृकुटी करके, आश्चयर्य उत्पन्न करते हुए सहसा कटाक्ष रूपी वाणों की वर्षा से श्रीनन्दनन्दन को निरंतर बस में करनेवाली हे सरवेश्वरी! अपने कृपा कटाक्ष का पात्र मुझे कब बनाओगी ?
अर्थ - बिजली,स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी कांति से देदीप्यमान गोरे अंगोंवाली अपने मुखारविंद की चाँदनी से करोड़ों शरच्चंदों को जीतनेवाली, क्षण-क्षण में विचित्र चित्रों की छटा दिखानेवाले चंचल चकोर के बच्चे के सदृश विलोचनों वाली, हे जगज्जननी !क्या कभी मुझे अपने कृपाकटाक्ष का अधिकारी बनाओगी.
अर्थ- अपने अत्यंत रूप-यौवन के मद से मत रहनेवाली आनंद भरा मन ही जिनका सवोतम भूषण है,प्रियतम के अनुराग रंगी हुई, विलास की प्रवीण अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंजराज्य के प्रेम कौतुक विघा की विदुषी श्रीराधिके! मुझे अपने कृपा कटाक्ष का पात्र कब बनाओगी.
अर्थ- संपूर्ण हाव-भावरूपी श्रृंगारों तथा धीरता एंव हीरे की हारों से विभूषित अंगोंवाली शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान एंव गयनि्दनी के गंडस्थल के समान मनोहर पयोंधरोंवाली प्रशांसित मंद मुस्कान से परिपूण आंनद सिंधु के सदृश श्रीराधे !क्या मुझे कभी अपनी कृपा दृषि्ट से कृतार्थ करोगी ?
अर्थ- जल की लहरों से हिलते हुए कमल के नवीन नाल के समान जिनकी कोमल भुजाएँ हैं पवन से जैसे लता का एक अग भाग नाचता है, ऐसे चंचल लोंचनों से नीलिमा झलकाते हुए जो अवलोकन करती हैं ललचाने वाले,लुभाकर पीछे-पीछे फिरनेवाले,मिलन में मन को हरनेवाले मुग्ध मनमोहन को आश्रय देनेवाली,हे वृषभानु किशोरी! कब अपने कृपा अवलोकन द्वारा मुझे माया जाल से छुड़ाओगी.
अर्थ - स्वर्ण की मालाओ से बिभूषित और तीन रेखाओ वाले शंख की छटा सदृश सुन्दर कंठ वाली और तीन जिनकेकंठ में मंगल मय त्रिसूत्र बंधा हुआ है, जिनमे तीन रंग के रत्नों का भूषण लटक रहा है, रत्नों से देदीप्यमान किरणे निकल रही है. दिव्य पुष्पों के गुच्छों से गूँथे हुए काले घुँघराले लहराते केशोवाली हें सर्वेश्वरी! श्री राधे कब मुझे अपनी कृपा द्रष्टि से देखकर अपने चरण कमलों के दर्शन का अधिकारी बनाओगी .
अर्थ - कटिमंडल में माणिमय किंकिणी सुशोभित है जिसमे सोने के फूल रत्नों से जड़े हुए लटक रहे है और उसकी प्रशसनीय झंकार अत्यंत मनोहर गजेन्द्र की सूंड के समान जिनकी जंघाए अत्यंत सुन्दर है ऐसी श्री राधे मुझ पर कृपा करके कब संसार सागर से पार लगाओगी.
अर्थ - अनेकों वेदमंत्रो की सुमधुर झनकार करनेवाले स्वर्णमय नूपुर चरणों में ऐसे प्रतीत होते हैं! मानो मनोहर हसों की पंकि्त गूँज रही हो, चलते समय अंगों की छवि है! ऐसी लगती मानो स्वर्णलता लहरा रही हो ! हे जगदीश्वरी श्रीराधे!क्या कभी मैं आपके चरण-कमलों का दास हो सकूँगा?
अर्थ - अनंत कोटि बैकुंठो की स्वामिनी श्रीलक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं तथा श्रीपार्वती जी, इन्द्राणी जी और सरस्वती जी ने भी आपकी पूजा कर वरदान पाया है ! आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का भी ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि का समूह बढ़ने लगता है! हे करूणामयी! आप कब मुझ को वात्सल्य-रस भरी दृषि्ट से देखोगी.
अर्थ- सब प्रकार के यज्ञों की आप स्वामिनी हैं! संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी,स्वधादेवी की स्वामिनी सब देवताओं की [ॠग,यजु ,साम] स्वामिनी प्रमाण शासन शास्त्र की स्वामिनी, श्रीरमा देवी की स्वामिनी , श्रीक्षमा देवी की स्वामिनी और [अयोध्या के] प्रमोद वन की स्वामिनी[श्रीसीता ] आप ही हैं हे राधिके ! कब मुझे कृपा कर अपनी शरण में स्वीकार कर पराभकि्त प्रदान करोगी? हे ब्रजेश्वरी!हे ब्रज की अधीष्ठात्री श्रीराधिके! आपको मेरा बारंबार प्रणाम है।
अर्थ- हे वृषाभानुनंदिनी! मेरी इस विचित्र स्तुति को सुनकर सर्वदा के लिए मुझ दास को अपनी दयादृषि्ट का अधिकारी बना लो बस आपकी दया दृषि्ट का अधिकारी बना लो बस आपकी दया ही से तो मेरे [प्रारब्ध संचित और क्रियामाण] इन तीनों प्रकार के कर्मों का नाश हो जाएगा और उसी क्षण श्रीकृष्ण के नित्य मंडल[दिव्यधाम की लीलाओं में] सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा.
14.राकायां च सिताष्टम्यां दशम्यां च विशुद्धया ,एकादश्यां त्रयोदश्यां यः पठेत्साधकः सुधी !
अर्थ - पूर्णिमा के दिन,शुक्लपक्ष की अष्टमी या दशमी को तथा दोनों की एकादशी और त्रयोदशी को जो शुद्ध बुद्धिवाला भक्त इस-स्त्रोत का पाठ करेगा वह जो भावना करेगा वही प्राप्त होगा, अन्यथा निष्काम भावना से पाठ करने पर श्रीराधाजी की दयादृष्टि से पराभक्ति प्राप्त होगी.
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