क्या क्यूबा भी पूर्व सोवियत संघ की राह चल पड़ा है?
Updated on
15-07-2021 02:53 PM
कैरेबियाई और महान क्रांतिकारी फिेदेल कास्त्रो के देश क्यूबा में इन दिनो लोग अपनी ही सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर रहे हैं। शायद पहली बार है, जब देश में लोग पूरे सिस्टम को ही बदलने की मांग कर रहे हैं। इसका मुख्य कारण देश की आर्थिक बदहाली और कोविड 19 से ठीक से लड़ने में सरकार की नाकामी है। हालांकि देश की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी इन प्रदर्शनों के पीछे पूंजीवादी देश अमेरिका का हाथ बता रही है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसे प्रदर्शन बहुत नहीं चौंकाते लेकिन िकसी साम्यवादी देश में सत्ता के खिलाफ लोगों का सड़कों पर उतरना अभूतपूर्व घटना मानी जाती है, क्योंकि यह ‘जन की सरकार’ के खिलाफ जनता का उतरना है। क्यूबा में विरोध प्रदर्शनों का यह सिलसिला बीते रविवार से शुरू हुआ। जानकारों का कहना है कि 1994 के बाद क्यूबा में ऐसा व्यापक जन असंतोष देखने को मिल रहा है। एक समय था, जब क्यूबा दक्षिण अमेरिका की एक बड़ी सैनिक शक्ति और समाजवादी व्यवस्था वाला सफल राष्ट्र माना जाता था। वहीं क्यूबा दुनिया की महाशक्ति और पूंजीवादी अमेरिका की आंखों में हमेशा चुभता रहा है। उसने क्यूबा पर कई आर्थिक प्रतिबंध लगा रखे हैं तथा वो वहां की कम्युनिस्ट सरकार को हटाने की कोशिश करता रहता है। लेकिन इस बार दुनिया भर के प्रेक्षक क्यूबा में हो रहे प्रदर्शनों में किसी बुनियादी बदलाव की दस्तक बूझ रहे हैं। ऐसे में सवाल यह है कि अगर सरकार इन विरोध प्रदर्शनों को दबा नहीं पाई तो क्या क्यूबा का राजनीतिक हश्र भी पूर्व सोवियत संघ की तरह होगा?
इस बारे में अंतिम निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी। पर हालात ठीक नहीं है। लोगों में असंतोष बढ़ रहा है। करीब 1 करोड़ 10 लाख वाली आबादी वाले इस द्वीप-देश में लोग अब ज्यादा आजादी, अधिकार और बेहतर आर्थिक हालात चाहते हैं। साम्यवादी व्यवस्थाअों का सबसे बड़ा विरोधाभास यही है कि ये व्यवस्था जन के लिए, जन के द्वारा होते हुए भी जन पर सबसे ज्यादा प्रतिबंध लगाती है। क्यूबा भी इसका अपवाद नहीं है। वहां चीन की तरह एक ही राजनीतिक दल यानी कम्युनिस्ट पार्टी है। उसका किसी भी प्रकार से विरोध दंड और प्रताड़ना का कारण बनता है। मानवाधिकारों के मामले में क्यूबा का रिकाॅर्ड बहुत ही खराब है। कई मानवाधिकारवादी जेल में हैं या सरकार से प्रताडि़त हैं। इसी तरह प्रकार प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहां नहीं है। मीडिया और दूरसंचार पर पूरी तरह सरकार का नियंत्रण है। इंटरनेट भी वहां व्हाया वेनेजुएला पहुंचता है। देश में यूं तो करीब 45 लाख से ज्यादा नेट यूजर्स हैं,लेकिन इंटरनेट पर भी तगड़ी सेंसरशिप है। सरकार तय करती है िक लोग क्या देखें और कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करें। इसलिए क्यूबा के अंदरूनी हालात की जानकारी भी बाकी दुनिया तक मुश्किल से पहुंच पाती है। हालांकि बीते एक दशक में क्यूबा जैसे बंद व्यवस्था वाले देश में भी कुछ छूट दी गई है, लेकिन वैश्विक संदर्भ में वो नाकाफी है। कम्युनिस्ट देश होने के कारण शुरू में कुछ बुनियादी मानवीय जरूरतों के मामलो में क्यूबा ने अच्छी प्रगति की। जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ, आवास आदि। आज भी आबादी के अनुपात में सर्वाधिक डाॅक्टर और लोगों के अपने घर क्यूबा में हैं। लेकिन अमेरिका से डर के चलते और अपनी वैश्विक सैनिक भूमिका कर आकांक्षा के मद्देनजर क्यूबा सरकार सेना पर अपनी जीडीपी का तुलनात्मक रूप से बहुत ज्यादा खर्च करती है। फिदेल कास्त्रो के रहते क्यूबा को आदर्श समाजवादी देश के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। कास्त्रो भारत के गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्रमुख साझीदार थे। क्यूबा में तब तक काफी कुछ ठीक था, जब तक दुनिया में शीत युद्ध के दौरान सोवियत रूस से उसे पर्याप्त आर्थिक और सैनिक मदद मिलती रही। सोवियत संघ के ढहने के बाद क्यूबा के भी बुरे दिन शुरू हुए। बाद में चीन ने कुछ मदद की है, लेकिन विश्व में संचार क्रांति, आर्थिक उदारीकरण और बाजार केन्द्रित व्यवस्था ने क्यूबा की समाजवादी व्यवस्था को चरमरा दिया है। आज भी ज्यादातर आर्थिक संस्थाअों पर सरकार का िनयंत्रण है। वही सबसे बड़ी रोजगारप्रदाता है। उत्पादकता कम है और वैश्विक निर्यात घट रहे हैं। हाल के वर्षों में निजी क्षेत्र को कुछ बढ़ावा दिया गया है, लेकिन देश की आर्थिकी में उसकी भूमिका मामूली है। जबकि लोगो के सामने आमदनी व रोजगार का संकट है। देश ‘आर्थिक घुटन’ में जी रहा है।
समाजवादी विचार आर्थिकी के संदर्भ में ‘हर पेट को रोटी, हर सिर को छप्पर, हर तन को कपड़ा’ तक तो ठीक चलता है, लेकिन इसके आगे वो कोई स्पष्ट राह नहीं सुझाता। वैसे भी हर नया विचार, चाहे वो कितना ही क्रांतिकारी क्यों न हो, समय के साथ अपने ही अंतर्विरोधों और यथास्थितिवाद का शिकार होने लगता है। जबकि मनुष्य की इच्छाअों और आकांक्षााअोंको पूरी तरह नियंत्रित या निर्देशित नहीं किया जा सकता। उसकी सीमा और ऊर्जा अनंत है। यही मनुष्य की ताकत भी है और कमजोरी भी। उसे जबरिया दबाने की कोई भी कोशिश दमन के दायरे में आती है। क्यूबा में भी हिंसक प्रदर्शनो को रोकने के लिए सरकार इन्हीं उपायों को अपना रही है। राजधानी हवाना सहित प्रमुख शहरो में लोग सड़कों पर उतर कर हिंसक प्रदर्शन और लूटपाट कर रहे हैं। एक प्रदर्शनकारी की मौत भी हुई है। पुलिस अभी तक डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार कर चुकी है। दुनिया में संदेश जा रहा है कि क्यूबा पर ‘कम्युनिस्ट सरकार का नियंत्रण नहीं रहा।‘ उधर राष्ट्रपति मिगुएल दियाज कानेल ने सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों को ‘प्रति क्रांतिकारी’ बताया है, ठीक वैसे ही कि जैसे हमारे यहां ऐसे लोगों को ‘देशद्रोही’ कह दिया जाता है। ध्यान रहे कि हर डरी हुई सरकार आजकल सबसे पहले सोशल मीडिया पर शिकंजा कसती है। क्यूबा में तो सोशल मीडिया वैसे भी अंकुशों के बीच पनप रहा है। लेकिन क्यूबा सरकार ने उस पर भी प्रतिबंध लगा दिया है। माना जा रहा है कि सरकार विरोधी भावना फैलाने में सोशल मीडिया एक बड़ा माध्यम है। क्यूबा सरकार के इस रवैए की उसके दोस्त देश कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो ने भी आलोचना की है। सवाल यह है कि अगर क्यूबा में सब कुछ अच्छा था तो ये नौबत क्योंकर आई ? आज लोग महंगाई, खाद्य पदार्थों की कमी, दवाअोंका टोटा और कम आमदनी से जूझ रहे हैं। देश में ज्यादातर सरकारी कर्मचारी हैं, जिनकी तनख्वाहें बढ़ती महंगाई की तुलना में नहीं बढ़ीं। यह सही है कि अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों के कारण क्यूबा का निर्यात सीमित है। लेकिन देश उन बुराइयों का भी शिकार है, जो एकदलीय और एक विचारकेन्द्रित व्यवस्था के कारण उपजती हैं। ऐसी व्यवस्थाएं आत्ममुग्धता के कारण समय रहते आत्मविश्लेषण और आत्मसुधार नहीं करतीं। करती भी हैं तो बहुत देर से, तब तक वक्त हाथ से िनकल चुका होता है। यानी वह आत्मालोचन भी महज सैद्धांतिक और बौद्धिक किस्म का ज्यादा होता है, जिसकी जगह केवल पाठ्यपुस्तकों में होती है। क्यूबा भी अपनी बदहाली और जनअसंतोष के लिए अमेरिका को कोस सकता है, लेकिन चीन उन्हीं कमजोरियों को अपनी ताकत बनाकर आज अमेरिका को चुनौती दे रहा है।
यह भी कहा जा रहा है कि इन प्रदर्शनों की आड़ में अमेरिका क्यूबा में राजनीतिक परिवर्तन के सपने देख रहा है। लेकिन क्यूबा में उसका सीधा या सैनिक हस्तक्षेप पूरे मामले को और जटिल बना देगा। तो क्या क्यूबा में सचमुच कोई मूलभूत राजनीतिक बदलाव हो सकता है? अगर हुआ तो क्या दुनिया में एक और कम्युनिस्ट व्यवस्था का समय के आगे सरेंडर होगा या फिर इसी तंत्र के अंतर्गत क्यूबा में समयानुकूल बदलाव हो सकेगा ? इन सवालों के जवाब भविष्य में मिलेंगे। ये जवाब ही 21 वीं सदी की दुनिया की रूपरेखा भी तय करेंगे।
अजय बोकिल, लेखक
वरिष्ठ संपादक, ‘राइट क्लिक’ ये लेखक के अपने विचार है I
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