किसी जमाने में हर गांव और शहरों में कई अखाड़े हुआ करते थे। जहां व्यक्ति दंड, बैठक और कुश्ती लड़ना और मलखम सिखते थे, वे सभी पहलवान के नाम से जाने जाते थे। हर अखाड़े के एक उस्ताद होते थे और उनके बताए आदर्श का सभी पहलवान पालन करते थे। अखाड़ों के पहलवान मानव शक्तिपुंज हुआ करते थे और खास बात यह थी कि हर अखाड़े के कुछ अपने नियम थे पहलवान हमेशा अन्याय के खिलाफ खड़ा रहना, महिलाओं की रक्षा करना, निर्बल पर अत्याचार नहीं होने देना इस आदर्शता के परिचायक थे। समय बदलता गया भौतिकवाद का दौर बढ़ता गया और अब अखाड़ों की जगह जिम्नेशियम ने ले ली यहां अब बच्चे जाते जरूर हैं पर उनका अधिकतर ध्यान शक्तिपुंज बनने के बजाय शारीरिक सुंदरता, दिखावट पर रहता है सिक्स एप बन जाए, डोले शोले दिखने लगे इस बात पर ज्यादा ध्यान रहता है। वहां कोई आदर्शता की बात कहने वाला उस्ताद नहीं होता। वहां सिर्फ जिम ट्रेनर होते हैं जो गाइड करते हैं कि किस मशीन पर कितना वर्कआउट करना है और कौन सी प्रोटीन डाइट लेना है। अभी महिलाएं भी जिम ट्रेनर से ट्रेनिंग लेने लगी इक्का-दुक्का केस में उनके संबंध भी बन गए। अखाड़े निशुल्क थे गरीब भी जाता था पर जिम्नेशियम मैं मासिक शुल्क या सालाना मेंबरशिप देना पड़ती है। सरकार, सामाजिक संस्थान और सामाजिक कार्यकर्ता ने अखाड़ों की पुनः स्थापना करना चाहिए ताकी पहलवान संस्कृति बनी रहे। अशोक मेहता, इंदौर (लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद्) (ये लेखक के अपने
विचार है)
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