गुजरात मंत्रिमंडल: चेहरे तो क्या आईना ही बदल डाला..!
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17-09-2021 04:34 PM
गुजरात में भाजपा ने मंत्रिमंडल तो क्या आईना ही बदल डाला है। इस महाबदलाव में कई खतरे निहित हैं। बड़ी कामयाबी के भी और उससे भी बड़ी नाकामयाबी के भी। भाजपा का गढ़ बन चुके गुजरात में नए और पहली बार मुख्यमंत्री बने भूपेन्द्र पटेल के मंत्रिमंडल में ‘पूरे घर के बदल डालूंगा’ की तर्ज पर सभी 24 मंत्री नए-नकोरे चेहरे हैं। भाजपा इन्हीं बेदाग और गुमनाम से चेहरों पर अगले साल दिसंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में दांव खेलने जा रही है। अब ये भाजपा का जबर्दस्त आत्मविश्वास है, अति आत्मविश्वास है? बहुत बड़ा जोखिम और पार्टी की भीतरी दरारों को भरने की ‘राजनीतिक पुट्टी’ है, इसका पता तो विधानसभा चुनाव नतीजों से ही चलेगा।
फिलहाल इतना तो मानना पड़ेगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, अमित शाह और आरएसएस ने गुजरात सरकार के नख-शिख परिवर्तन का फैसला बहुत सोच-समझ कर और पुराने चावलो की नाराजी का भारी जोखिम उठाकर ही लिया होगा। इसका सीधा अर्थ है कि विजय रूपाणी के नेतृत्व में जो सरकार चल रही थी, वो खारिज करने लायक ही थी। इसमें कई तात्कालिक कारण भी जुड़ गए थे। फीडबैक यही था कि इस सरकार के बल-बूते फिर से सत्ता में नहीं आया जा सकता। लिहाजा पूरी टीम को ही टूर्नामेंट से बाहर कर िदया गया। जो लोग घर बिठा िदए गए, उनमें पूर्व उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल जैसे नेता भी हैं, जो कल तक सीएम बनने के ख्वाब देख रहे थे। और अब इस बात की खैर मना रहे हैं कि कम से कम विधायक का िटकट ही फिर मिल जाए।
जाहिर है कि भूपेन्द्र पटेल की नई कैबिनेट के आईने पर धूल जमने में भी वक्त लगेगा। स्वयं मुख्यमंत्री और नए मंत्रियो में प्रशासन का कोई पूर्वानुभव भले न हो, लेकिन वो उत्साह से लबरेज हैं। ये अपनी जिम्मेदारियो को किस तरह से निभाएंगे, कितना निभा पाएंगे, नई सरकार स्मार्ट होगी या नहीं, सुशासन दे पाएगी या नहीं, कहीं अफसर नए मंत्रियों पर हावी तो नहीं हो जाएंगे, इन सब सवालों के जवाब तलाशने के लिए उन्हें वक्त देना होगा। जनता भी नई सरकार को ‘शुरूआती अोवर’ की तरह मौका देगी ही। नवेली सरकार से उम्मीदें भी काफी होंगी। विपक्ष भी इस सरकार पर आरंभ में ज्यादा से ज्यादा इतना ही हमला कर पाएगा कि भूपेन्द्र पटेल मंत्रिमंडल के सभी मंत्री ‘नौसिखिया’ हैं। यानी मामला ‘फिफ्टी िफफ्टी’ का है।
यह बिलकुल साफ है कि भूपेन्द्र पटेल मंत्रिमंडल का गठन आगामी विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर िकया गया है। मंत्रिमंडल में 10 कैबिनेट व 14 राज्यमंत्री हैं। स्थानीय मीडिया के अनुसार भूपेन्द्र मंत्रिमंडल में सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व उस सौराष्ट्र अंचल को िमला है, जहां पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन कमजोर रहा था। वहां से 8 मंत्री बनाए गए हैं। उत्तर गुजरात से 3, दक्षिण से 7 व मध्य गुजरात से 6 लोगों को मंत्री बनाया गया है। जातीय आधार पर देखें तो मुख्यमंत्री के अलावा सर्वाधिक 8 मंत्री पटेल (पाटीदार) समुदाय से हैं। उनके बाद अोबीसी 6, आदिवासी 3 तथा ब्राह्मण 2, क्षत्रिय 2, एससी 2 तथा 1 मंत्री जैन समुदाय से है। यानी बीजेपी मुख्य दांव पटेलों और अन्य पिछड़ा वर्ग पर ही खेलने जा रही है।
वैसे चुनाव के मद्देनजर ‘संपूर्ण परिवर्तन’ का यह निर्णायक दांव भाजपा 2017 में दिल्ली के तीन नगर निगमों के चुनाव में सफलता से खेल चुकी है, जब उसने नगर निगमों के सभी 138 पार्षदों के टिकट एक झटके में काट दिए थे और राजनीतिक दृष्टि से ‘कुंवारे’ चेहरों पर दांव खेला था। नतीजतन एंटी इनकम्बेंसी और दो साल पहले ही दिल्ली प्रदेश के विधानसभा चुनाव में करारी हार की कसक 181 सीटों पर जबर्दस्त जीत में तब्दील हो गई। निष्कर्ष निकला कि चेहरे बदलने से लोगों की नाराजी काफी हद तक दूर होकर समर्थन में बदल जाती है। यानी यह एक तरह की सियासी कीमियागरी है।
लेकिन क्या यह कीमियागरी हमेशा वरदान साबित होगी? खासकर गुजरात जैसे राज्य में, जिसे भाजपा ने कभी कम्युनिस्टो के गढ़ बंगाल ( अब वह भी ढह चुका है) की तर्ज पर सिरजने का सोचा था। गुजरात में कांग्रेस की रणनीतिक गलतियों और 2002 के साम्प्रदायिक दंगों के बाद से राज्य में ऐसा सघन ध्रुवीकरण हो चुका है कि वहां पार्टी के लिए सत्ता में लौटना आसान नहीं है। पाटीदार आरक्षण आंदोलन की छाया में हुए 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी टक्कर जरूर दी थी, लेकिन फिर भी सत्ता से दूर ही रही। जबकि भाजपा सीटों की घट-बढ़ के साथ बीते 26 सालों से निरंतर सत्ता में है। संघ के लिए वह ‘हिंदुत्व की आदर्श प्रयोगशाला’ है।
लेकिन निरंतर सत्ता में बने रहने के अपने दुष्परिणाम होते हैं। यदि उन्हें समय रहते नहीं समझा गया और उसे रोकने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो सत्ता का यह महल धीरे-धीरे भीतर से इतना खोखला होता जाता है कि बुलडोजर के एक धक्के के बाद फिर खड़ा हो ही नहीं पाता। बंगाल में वामपंथियों के निरंतर सत्ता में रहने और अपने भीतर जरूरी सुधार और राजनीतिक सर्जरी नहीं करने से सत्ता प्रासाद बुरी तरह ढह गया और अब तो वहां प्रतिपक्ष का स्पेस भी भाजपा ने हथिया लिया है। गुजरात में भी पूरी सरकार का चेहरा बदलना एक फौरी उपाय जरूर है, लेकिन समस्या का स्थायी निदान नहीं है।
यूं भाजपा, उसके नेतृत्व और आरएसएस की आलोचना कई मुद्दों पर हो सकती है, लेकिन एक बात माननी पड़ेगी कि अनुभव से जल्दी सबक वो लेते हैं और तदनुसार कठोर फैसले करने की रिस्क भी उठाते हैं। गुजरात में रूपाणी सरकार की जड़मूलसहित विदाई का यह निर्णय इसी श्रेणी का है। क्योंकि कोई भी शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व अपने आजमाए हुए, पुराने, घाघ, त्यागी, तपस्वी, आड़े वक्त के साथी आदि विरूदों से विभूषित नेताअो को इस तरह किनारे लगाने का साहस शायद ही जुटा पाता है। क्योंकि इसमे जहाज के पार लगने के साथ डूबने का खतरा भी निहित है। यानी जो ताकत है, वो कमजोरी भी है। मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल की देहभाषा सौम्य प्रशासक की लगती है। आगे इसमें बदलाव हो सकता है। लेकिन उन्हें करना वही है, जो मोदी शाह कहें और आरएसएस चाहे। यानी उनकी कसौटी दिशा निर्देशों का कुशल क्रियान्वयन ही है। यही स्थिति नए मंत्रियो की भी है। लेकिन अगर ये मंत्री परफार्म नहीं कर पाए और खुद भूपेन्द्र पटेल भी जनता और पार्टी की अपेक्षाअों पर खरे नहीं उतरे तो यह दांव उलटा भी पड़ सकता है। ‘पुरानो को कबाड़खाने में डालने’ का तगड़ा खमियाजा भी पार्टी को भुगतना पड़ सकता है। देश में भाजपा की उल्टी गिनती भी शुरू हो सकती है।
अब सवाल यह है कि सभी पूर्व मंत्रियों का पत्ता साफ करने के बाद क्या गुजरात भाजपा में और घमासान होगा या फिर अनुशासन का डंडा असंतुष्टों के मुंह पर ताले डालने में सफल हो जाएगा। जो लोग सत्ता से बाहर कर दिए गए हैं, आगामी विधानसभा चुनाव में कितना भीतरघात करेंगे? नगर निगम और विधानसभा चुनाव की तासीर और तेवरों में जमीन आसमान का फर्क है। बदलाव का दांव उलटा पड़ा तो इसका असर दिल्ली तक होगा। और फिर ‘पूरे घर के बदल डालने’ का यह प्रयोग गुजरात मंत्रिमंडल तक ही सीमित नहीं रहेगा। मुमकिन है कि विधानसभा चुनाव में सभी नहीं तो 90 फीसदी वर्तमान विधायकों के टिकट काटे जा सकते हैं। यही कहानी लोकसभा चुनाव में भी दोहराई जा सकती है।
गुजरात के प्रयोग में भाजपाशासित मध्यप्रदेश सहित अन्य राज्यों के लिए भी साफ संदेश छिपा है। गौरतलब है कि अगले साल जिन सात राज्यों में िवधानसभा चुनाव होने हैं, उनमे से पंजाब को छोड़कर शेष सभी 6 राज्य भाजपा शासित ही हैं। इनमें से चार राज्यों में पांच मुख्यमंत्री चुनाव से पहले अपनी कुर्सी गंवा चुके हैं और छठे यानी हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भी आलाकमान के राडार पर हैं।
कुलमिलाकर भाजपा गुजरात सहित सभी आसन्न चुनाव वाले राज्यों में नई चालें चल रही है। लेकिन इतना जोखिम वही पार्टी उठा सकती है, जिसके नेतृत्व को भरोसा हो कि वो जो कर रहे हैं, राज्यों में पार्टी की सत्ता के स्थायीकरण के लिए है। कुशासन के सायों को बेदखल करने के लिए है। हालांकि चेहरा बदलने का अर्थ ‘सुशासन’ नहीं होता और न ही वह जीत की राजनीतिक गारंटी है। अलबत्ता एक भीतरी दिलासा जरूर है। चूंकि भाजपा हर चुनाव में अपनी सारी ताकत के साथ साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि को भी दांव पर लगाती है, इसलिए भाजपाशासित राज्यों में हार का जोखिम किसी कीमत पर नहीं लेना चाहती। यह जानते हुए भी कि राष्ट्रीय नेतृत्व और क्षेत्रीय नेतृत्व के तकाजे अलग अलग होते हैं।
गुजरात के ‘क्रांतिकारी’ प्रयोग से यही लगता है कि तमाम खतरों के बाद भी मोदी-शाह और संघ को शायद पूरा विश्वास है कि बदलाव के ये पांसे जीतने के लिए फेंके जा रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि भूपेन्द्र सरकार के खिलाफ विपक्ष जब तक आक्रामक होगा, तब तक चुनाव का बिगुल बज चुका होगा। मोदी को मालूम है कि समाज के एक बड़े वर्ग पर उनकी पकड़ अभी भी मजबूत है। सफलता के आकाश में अगर मोदी की छवि राफेल की तरह है और भूपेन्द्र पटेल जैसे कई ड्रोन चक्कर उसमे चक्कर लगाते रहेंगे। लिहाजा गुजरात के विधानसभा चुनाव स्वयं नरेन्द्र मोदी की शख्सियत, आभामंडल और कार्य शैली पर नए सिरे से मुहर लगाने की कवायद ज्यादा है। यही मुहर 2024 के लोकसभा चुनावों की दिशा तय करेगी। खुदा न खास्ता अगर नतीजा विपरीत आया तो देश को बड़ी उथल पुथल भी देखने को मिल सकती है। लेकिन इसकी संभावना बहुत कम है। यह मानना गलत नहीं होगा कि गुजरातियों में मोदी का जादू बरकरार है। मुखौटा भले किसी का हो।
अजय बोकिल , वरिष्ठ संपादक ये लेखक के अपने विचार है I
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