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लड़कियों को पति नहीं किताब दीजिये - फिर देखें उनके पूरे होते ख्वाब

Updated on 18-10-2021 03:15 PM
स्त्री को भी उनके सपने जीने दीजिए, उन्हें किताबें दीजिए ना की पति का नाम उन्हें उनका नाम दीजिए। प्राचीन समय से आज के आधुनिक समय तक स्त्री की स्थिति भारत में अलग-अलग स्वरूप में देखने आती है या कहे तो हमेशा बदलती रही है। यदि हम इतिहास देखें तो हम स्त्री को बेहद स्वतंत्र सक्षम और नेतृत्व करते हुए देखते हैं I वही वर्तमान आधुनिक काल के आरंभ से लेकर वर्तमान परिस्थिति तक एक शोषित अशिक्षित और पति या परिवार पर आश्रित अंकित महिला के रूप में नजर आती है। हमारे पुराणो पर नजर डाले तो मानव सभ्यता की प्रथम नींवभीएक स्त्री द्वारा ही डाली गई  और पुरुषों को जंगलों से निकाल कर घर बसाने तक में स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
प्राचीन समय में स्त्री अत्यंत शिक्षित स्वतंत्र सक्षम और महत्वपूर्ण नेतृत्वकर्ता की भूमिका में देखी गई है जहाँ वे हर श्रेणी में पुरुषों से कम न थी अगर वेदिक काल को देखें तो  मैत्रियी, गार्गी, अनुसुइया आदि सत्रीय शास्त्रार्थ मैं पारंगत थी। किंतु यही से हम स्त्रियों की स्थिती में पतन भी देखते हैं जो कि उत्तर वैदिक युग में संपूर्णरूप से उभर के आया यही से स्त्री की शक्ति, प्रतिभा व स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगने लगे।
पहले यह प्रचलित था-“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्तेरमन्ते तत्र देवता”, फिर आया “पिता रक्षति कौमारे, पति रक्षति युवने, पुत्रस्य स्थाविरेभावे, नस्त्रीस्तातंत्रयमहरती। यहाँ से उसे पुरुषों के अधीन समझा जाने लगा और स्त्री घर की चार दीवारों में कैद कर दी गई, बाल विवाह,अशिक्षित होना,  धार्मिक संस्कारों में भागीदारी का कम होना, बहुपत्नी प्रथा और भी कई कुरीतियों के चलते स्त्री का पतन होता गया जो की निम्न स्तर तक पहुँच गया, विधवा पुनर्विवाह, पर्दाप्रथा ,सती प्रथा जैसी कुरीतियां प्रचलन में आई जो आज भी पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हो पाई है, हालांकि कई समाज सुधारकऔर साहित्यकारों ने इन कुरीतियों पर प्रतिबंध लगाने के लिए कार्य किंतु जो विचारधारा का समावेश एक बार समाज में आ गया वो पूर्ण रूप से आज भी खत्म नहीं हो पाया है, आज का आधुनिक युग भी स्त्री शोषण की समस्या से जूझ रहा है। गहरा चिंतन किया जाए तो स्त्री के शोषण और उसके अशिक्षित होने में पुरुषों का जहाँ तक हाथ है वहाँ एक कहावत भी सत्य है कि स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी दुश्मन है वो यहाँ सत्य प्रतीत होती नजर आती है कि आज भी देखा जाए तो एक स्त्री ही स्त्री को शिक्षित नहीं होने देती, आपस में प्रतिस्पर्धा की भावना रखती है जो कहीं न कहीं स्त्रियों को आगे बढ़ने से रोकती है आज अधिकतर घरों में देखा जाए तो स्त्रियों को भी अपनी सोच में बदलाव करने की आवश्यकता है,  पुरुषों के स्वामित्व को नकारकर स्त्री को साक्षर होने की आवश्यकता है। यहाँ साक्षर होने से केवल पढ़ा लिखा होना नहीं है बल्कि अपनी संकुचित सोच में बदलाव लाना और उसे अपने और अपने आसपास के लोगों तक पहुंचाना है और अमल कराना है जिससे कि हम समाज को संकुचित सोच से निकाल कर उभरी विचारधारा की ओर प्रेषित कर सके।जब एक माँ चाहेगी कि उसकी बेटी पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जाए ना की यह सोचेगी कि बस बेटी बड़ी हो गई अब उसकी शादी कर दो उस दिन वाकई में एक स्त्री दूसरी स्त्री की सच्ची मित्र होकर उसके और खुद के लिए आगे के मार्ग प्रशस्त करेगी । यहाँ पर हमे लड़की के हाथों में किताब पकड़ाने की सोच प्रगाढ़ करनी होगी, उन्हें अपने सपने जीने की आजादी देनी होगी ना कि उन्हें चूल्हे चौके तक सीमित कर पति और परिवार के हाथों मैं सौंपा जाए, हाँ हमें साक्षरता के साथ हमारे संस्कारों का भी पूर्ण रूप से ध्यान रखना है क्योंकि स्त्री जननी हैं, माँ है और एक स्त्री से ही घर घर होता है और पुरुषों को संस्कार देने वाले भी एक स्त्री ही है जब आप बचपन से ही अपने बेटे को स्त्री का आदर करना सिखाएंगे तो वह स्त्री का आदर करे गा ये कहावत है, “गुरु भगवान का द्वार हैं और माँ एक शिक्षक”, जो माँ अपने बच्चों को सिखाएगी वह अपने जीवन शैली में उतारेगा अतः बदलाव यदि बड़े स्तर पर करना हो तो उसकी शुरुआत हमेशा अपने घर से ही होती है और संस्कारों की नींव ही माता पिता हैं।
पुरुषों द्वारा शोषित महिला यदि वास्तव में देखे तो कहीं ना कहीं एक महिला द्वारा ही पीड़ित हैं और शोषित है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण सास और पति द्वारा बहू का शोषण जैसी समस्याएं हैं I  यह महिलाओं की उनके ही प्रति गुण सोच और नियम का उच्च उदाहरण है वास्तव में यदि हम महिलाएं स्वतंत्र सक्षम और आत्मनिर्भर होना चाहती है तो पहले हमें अपनी सोच को स्वतंत्र करना होगा कि हम कहीं से किसी भी क्षेत्र में कम नहीं और आप सक्षम हैं कुछ भी कर गुज़रने के लिए, जरूरत है तो केवल अपने आप को सक्षम समझने की और इस दिशा में कार्य करने की आप आत्मनिर्भर है, क्यों आपको किसी के सहारे की आवश्यकता है ? क्यों आप यह सोच नहीं अपना सकती यह मेरा जीवन है, यह मेरी पसंद है, जो करूँगी उसकी ज़िम्मेदार मैं खुद हूँ और मैं किसी भी स्थिती में किसी से कम नहीं, लोग क्या कहेंगे इससे मुझे फर्क नहीं पड़ता, जो लोग मेरे बारे में बोलते हैं (चाहे वह अच्छा हो या बुरा) मतलब मुझ में  कुछ तो बात है जो लोगों की चर्चा का विषय हूँ, जब एक स्त्री इस सकारात्मक सोच के साथ कार्य करती है आगे बढ़ती है तभी सच्चे मायने में वह सक्षम महिला और स्वतंत्र रूप से जीवन जीने की अधिकारी होती है और यह भाव केवल और केवल एक शिक्षित और साक्षर महिला के द्वारा ही उपजे जा सकते हैं कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार है”वोशाख है ना फूल, अगर तितलियाँन हो, वो घर भी कोई घर है जहाँ स्त्रियाँ न हो”.
भारत को स्त्रियों के महत्व को लेकर अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है। लड़कियों को अपने सपनों को पूरा करने के लिए उड़ान की जरूरत है जो माँ बाप किताबों के रूप में उन्हें साक्षर बनाकर दे सकते हैं ना कि बेड़ियों की तस्वीर मैं जो हम उन्हें शादी और पति के नाम पर देते हैं। इसका अर्थ कतई यह नहीं है की शादी करना, घर बसाना बुरी बात है अपितु यह जीवन और समाज का बेहद अमूल्य अंग है जो स्त्री और पुरुष के समावेश से बनता है और जो समाज और परिवार की नींव है किंतु शादी के लिए एक महिला का  अशिक्षित रह जाना कहाँ तक सही है। पढ़े लिखे और साक्षर समाज की स्थापना तभी संभव है जब घरकी महिला साक्षर और सक्षम हो तभी वह आने वाली पीढ़ी कोभी साक्षर करसकेगी और सामाजिक सोच और कुरुतियों में लगाम लगेंगी स्त्री को भी सपने देखने का अधिकार है उन्हें पूरे करने का अधिकार है भरने दीजिए उन्हें भी उड़ान और रंग देखिए, मत बांधिए उनके पैरों में जंजीरें दीजिये उनके हाथों में कलम और फिर देखिए एक निखरे हुए समाज तस्वीर,कि यह वह कलि है जो खिलने के लिए आप से केवल एक बूंदपानी चाहती है खिल उठेगी और बिखेरेगी आपके जीवन में खुशियों के रंग जितना खिलेगी जितना निखरेगी उतना ही मीठा होगा आपका जीवन मत बांधो पंखों को कि दो उसेभी उड़ने की आजादी।
जूही रघुवंशी, अधिवक्ता एवं लेखिका                                 ये लेखिका के अपने विचार है I



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