हमारे यहां लड़कों को लड़कियों के बनिस्बत ज्यादा महत्व दिया जाता है, यह तो है कि पुरुष प्रधान देश है, परंतु फिर भी हम बातें महिला पुरुष को समान अधिकार की करते हैं। इस विषय पर परिवार और समाज कितनी मान्यता देते हैं यह आज भी फैसला नहीं हो पाया। यदि एक लड़की घोड़ी पर बैठकर बरात ले जाती है या अपने पिता की शव यात्रा में शामिल होकर दाह संस्कार करती है तो यह एक बड़ी खबर बनती है। पहली महिला बस ड्राइवर बनी या पायलट बनी तो यह पूरे भारत में खबर बनी। इसका मतलब यह है कि महिलाएं अभी तक बराबरी पर आगे नहीं आ पाई क्यों नहीं आ पाई यह प्रश्न नहीं है, प्रश्न यह है कि उन्होंने क्या प्रयास किए या उनके लिए उनके परिवार और समाज ने कितना सहयोग दिया। आज भी कई परिवार अपनी बच्चीयो और महिलाओं को आत्मरक्षा करना नहीं सिखाते हैं, वह कमजोर हैं अपनी रक्षा नहीं कर पाती हैं ज्यादा किसी से हिले मिले नहीं होने से जब भी कहीं किसी का साथ थोड़ा सा मिलता है वह उसके साथ रम जाती है। मानव जाति की शुरुआती सभ्यता से ही महिलाए पुरुषों के लिए सेविका ही रही। धीरे-धीरे कुछ महिलाएं आगे आई परंतु आज भी महिलाएं और खास करके लड़कियां असुरक्षित हैं। लड़कियों को बचपन से ही मानसिक और शारीरिक तौर पर मजबूत बनाने पर जोर देना होगा उन्हें आत्मनिर्भर आत्मरक्षक बनाना होगा। उनके लिए भी वही छूट होना चाहिए जो लड़के को परिवार एवं समाज देता है।
अशोक मेहता, इंदौर (लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद्) (ये लेखक के अपने विचार है)
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