डाॅक्टरों को सियासी विचारों की ‘दवा’ व ‘पति’ को ‘गुरू’ बनाने की हवा...!
Updated on
09-09-2021 03:13 PM
जब विचार के लिए कोई ठोस मुद्दा नहीं बचता तो विवादों के गोदामों के ताले खोले जाते हैं ताकि जनता का ध्यान मूल सवालों से हट सके। मध्यप्रदेश में दो ताजा मामले इसी श्रेणी के हैं। इन्हें उछाला भी शायद इसी मकसद से गया है कि उस पर राजनीतिक बवाल हो और वो हो भी रहा है। सत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस इन दो मुद्दों को लेकर आमने-सामने हैं। जानते हुए कि इससे कुछ खास हासिल नहीं होना है। पहला मुद्दा है राज्य में एमबीबीएस प्रथम वर्ष के छात्रों को महापुरूषों के विचार पढ़ाना और दूसरा है विवि के कुलपतियों का नामकरण बदलकर ‘कुलगुरू’ करना। पहले मुद्दे पर विपक्षी कांग्रेस का आरोप है कि यह भावी डाॅक्टरों को आरएसएस के विचारों में दीक्षित करने का सुनियोजित प्रयास है तो भाजपा का कहना है िक महापुरूषों के विचार मेडिकल छात्रों को पढ़ाने में गलत क्या है? दूसरे मामले में अनुवाद का झगड़ा ज्यादा है। क्योंकि कुलपति को ‘कुलगुरू’ भी कहा जाए तो भी उनकी वास्तवित हैसियत पर कोई असर नहीं पड़ना है। यह केवल प्रतीकात्मक बदलाव है।
बात पहले मुद्दे की। एमबीबीएस यानी मेडिकल के छात्रों को महापुरूषों के विचार पढ़ाने की। जहां तक महापुरूषों के अच्छे विचारों से अवगत होने या कराने की बात है तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। लेकिन ये केवल मेडिकल छात्रों को ही क्यों? बाकी ने कौन सा गुनाह किया है? अच्छे विचार जानने की जरूरत जितनी मेडिकल छात्रों को है, उससे ज्यादा तो आज राजनेताअोंको है। वो भी ऐसी क्लास में बैठें तो देश का भला ही होगा। बात जब महापुरूषों की हो रही है तो इसी से जुड़ा सवाल यह भी है कि कौन से महापुरूष? जिन्हें हम सब मानें, जिन्हें पूरी दुनिया मानें या िफर जिन्हें कुछ लोग माने और कुछ लोग न मानें? जो खबर मीडिया में आई है, उसके मुताबिक राज्य के िचकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग की पहल पर चिकित्सा विज्ञान के प्रथम वर्ष के छात्रों का महापुरूषों के विचारों से प्रबोधन किया जाएगा। ताकि वो ‘संस्कारित’ हों। इसके लिए पांच सदस्यीय कमेटी बनाई गई थी, िजसकी सिफारिश को मान्य किया गया है। इस मायने में मेडिकोज का विचार प्रबोधन की देश में यह पहली पहल है। महापुरूषों के विचार मेडिकल छात्र जानें, इसमें कोई विवाद नहीं। खासकर उन महान चिकित्साविज्ञानियों के, जिन्होंने मानवता की सेवा में अमूल्य योगदान दिया है। लेकिन जो नाम प्रस्तावित हैं, विवाद उनमे से कुछ पर है। भारतीय चिकित्सा शास्त्र में महान ऋषि चिकित्सकों जैसे चरक, सुश्रुत, आदि के नाम सुपरिचित हैं। इनके विचार और इनके चिकित्सा ज्ञान को पढ़ाया जाए तो इसमें किसे आपत्ति हो सकती है? बल्कि इस सूची में कुछ और नाम बढ़ाए जाने चाहिए, जैसे कि देश की पहली और विदेश से एमबीबीएस डिग्री हासिल कर देश में सेवा देने वाली महिला डाॅक्टर आनंदीबाई जोशी, पहली स्वदेश में एमबीबीएस डिग्रीधारी महिला प्रेक्टिशनर डाॅ.कादम्बिनी गांगुली। इन महिलाअोंने घोर विपरीत परिस्थितियों में चिकित्सा विज्ञान में डिग्री हासिल कर मानवता की सेवा का श्रेष्ठ उदाहरण स्थापित किया। सूची में आरएसएस के संस्थापक व प्रथम सरसंघचालक डाॅ.केशव बलिराम हेडगेवार का नाम भी है। अगर डाॅक्टर साहब के िचकित्सा विज्ञान के संदर्भ में अमूल्य विचार हों, तो उसे पढ़ाने में कोई हर्ज नहीं, क्योंकि वो भी डिग्रीधारी मेडिकल डाॅक्टर थे। हालांकि उन्होंने अपना ज्यादातर समय हिन्दुअों का संगठन ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ खड़ा करने में व्यतीत किया, जिसकी जड़े अब देश के कोने में फैल चुकी हैं। उन्हीं के समांतर एक और मेडिकल डाॅक्टर एन.एस. हर्डीकर भी हैं, जिन्होने आरएसएस से भी दो साल पहले कांग्रेस सेवा दल जैसे सामाजिक संगठन की स्थापना की। दोनो अलग अलग विचारों से प्रेरित थे, लेकिन दोनो ने कोलकाता से और एक ही साल में मेडिकल डिग्री हासिल की थी। दोनो का जन्म वर्ष भी एक ही है। यह बात अलग है कि कांग्रेस की निरंतर सत्ता की राजनीति ने सेवा दल को सामाजिक आंदोलन से एक पिछलग्गू संगठन तक सीमित कर िदया। अलबत्ता आरएसएस ने अपनी अलग पहचान को न सिर्फ कायम रखा बल्कि उसका सतत विस्तार भी कर रहा है। बुनियादी तौर पर ये सभी मानवतावादी थे। बल्कि इस सूची में आधुनिक समय के वंदनीय चिकित्सको जैसे इंदौर के डाॅ. एसके मुखर्जी और भोपाल के डाॅ.एनपी मिश्रा का नाम भी जोड़ा जाना चाहिए, िजन्होंने निस्वार्थ भाव से मानवता की सेवा की।
हैरानी की बात इसी सूची में डाॅ. भीमराव आम्बेडकर और पं. दीनदयाल उपाध्याय का नाम हैं। यकीनन ये दोनो महान समाज सुधारक और राजनीतिक विचारक थे, लेकिन मेडिकल प्रोफेशन से भी उनका कभी कोई सम्बन्ध रहा हो, ऐसा जानकारी में नहीं है। अगर इसी सिद्धांत पर कल को कांग्रेस शासित राज्यों में मेडिकल छात्रों को महात्मा गांधी, पं. जवाहर लाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, अबुल कलाम आजाद या कम्युनिस्ट शासित राज्यों में मार्क्स, लेनिन या माअों के विचार और आम आदमी पार्टी शासित राज्य में अरविंद केजरीवाल तथा टीएमसी शासित राज्य पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के विचार पढ़ाएं जाए तो भाजपा किस मुंह से उसका विरोध करेगी? क्योंकि ये सभी उनकी पार्टी की नजरों में 'महापुरूष' हैं और जनादेश पाकर नेता बने हैं।
अगर 'महान विचारों' के इस अध्यापन के पीछे मकसद भावी डाॅक्टरों को मानवतावाद की सीख देना है तो चिकित्सा शास्त्र स्वयं अपने आप में सबसे बड़ा मानवतावादी पेशा है। मनुष्य मात्र की सेवा ही िजसका उद्देश्य है। यह दुनिया के 6 नोबेल प्रोफेशन्स में अव्वल माना जाता है और केवल डाॅक्टर ( धर्म प्रणेताअों को छोड़कर) को ही भगवान का दूसरा रूप माना जाता है।(इसमें धंधेबाज डाॅक्टरों को शामिल न करें)। अगर बीमार का ईश्वर के बाद किसी पर विश्वास होता है तो वह डाॅक्टर ही है। शायद ही कोई डाॅक्टर हो, जो मरीज का इलाज हिंदू-मुसलमान या सिख-ईसाई के आईने में देखकर करता हो। लेकिन डाॅक्टरों को राजनीतिक विचार पढ़ाकर कल के डाॅक्टरों के मन में आप कौन सा बीज बोना चाहते हैं?
अब दूसरा मुद्दा। प्रदेश में विश्वविद्यालयों के 'कुलपति' का नाम बदलकर कर 'कुलगुरू' करने का प्रस्ताव है। दरअसल इस संज्ञा में शुरू से ही अनुवाद का गड़बड़घोटाला है। जिसे अंग्रेजी में 'व्हाइस चांसलर' कहा जाता है, उसे हिंदी में 'कुलपति' अनूदित किया गया है। जबकि सही अनुवाद 'उपकुलपति' होना चाहिए था, क्योंकि विवि का चांसलर (कुलपति) तो कोई और होता है। शायद ‘उप’ उपसर्ग से वीसी की हैसियत कमतर प्रतीत होती हो, इसलिए 'उप' को हटाकर 'कुलपति' और चांसलर के लिए और भारी शब्द ‘कुलाधिपति’ अपनाया गया। मजे की बात यह है कि अंग्रेजी में 'व्हाइस चांसलर' और 'चांसलर' शब्द ही मान्य हैं। हिंदी और संस्कृत में ‘पति’ शब्द के कई अर्थ हैं, िजसमें से एक ‘स्वामी’ अथवा अधिष्ठाता भी है। अब कुलपति शब्द, जो हिंदी में रूढ़ हो चुका है, को 'कुलगुरू' में बदलने के पीछे 'बदलने के लिए बदलना' ज्यादा लगता है। हालांकि मराठी में व्हाइस चांसलर के लिए ‘कुलगुरू’ शब्द पहले से प्रचलन में है। मप्र में इसे अपनाने के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि इससे 'गुरू की महत्ता' सम्प्रेषित होगी। दूसरे शब्दों में कहें ‘पति’ से ‘गुरू’ ज्यादा बड़ा महान है। ( कल को ‘राष्ट्रपति’ के लिए भी ‘राष्ट्रगुरू’ जैसा कोई शब्द मान्य करने की मांग उठ सकती है !) यह बात अलग है कि हिंदी में ‘गुरू’ शब्द के भी कई अर्थ हैं। और अाजकल तो यह अभिधा के बजाए लाक्षणिक अर्थ में ही ज्यादा प्रयुक्त होने लगा है। यदि 'कुलपति' की जगह 'कुलगुरू' कहने से इस पद की प्रतिष्ठा और गरिमा पुनर्स्थापित हो सके तो अच्छा ही है। वरना 'कुलगुरू' भी उन्हीं जोड़तोड़ और विद्वत्तेतर प्राथमिकताअोंऔर प्रतिबद्धताअों के आधार पर बनते रहे, जैसे कि (कुछ अपवादो को छोड़ दें) 'कुलपति' बनते रहे हैं तो इससे इस पद की महिमा कैसे बढ़ेगी, यह सोचा जा सकता है। 'पति' से 'गुरू' तक का यह फासला विद्वत्ता और गुणवत्ता के भाव से पूरा जा सके तो अच्छा ही है।
रहा सवाल राष्ट्र प्रेम और मानवता का तो वह संस्कारों से और नैतिक शिक्षा से आता है। उस पर आचरण से आता है। मनुष्य मात्र के प्रति करूणा से आता है। गहरी संवेदना और सेवा भाव से आता है। कर्तव्य को सर्वोपरि मानने से आता है। इंसान को इंसान समझने से आता है। गहरे समर्पण और निस्वार्थ प्रेम से आता है। और डाॅक्टरी का तो ककहरा ही यहीं से शुरू होता है।
अजय बोकिल , वरिष्ठ संपादक, ‘राइट क्लिक’ ये लेखक के अपने विचार है I
महाराष्ट्र में भाजपानीत महायुति और कांग्रेसनीत महाविकास आघाडी के लिए इस बार का विधानसभा चुनाव जीतना राजनीतिक जीवन मरण का प्रश्न बन गया है। भाजपा ने शुरू में यूपी के…
लोकसभा विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित हो चुके हैं।अमरवाड़ा उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी कमलेश शाह को विजयश्री का आशीर्वाद जनता ने दिया है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 29 की 29 …
छत्तीसगढ़ के नीति निर्धारकों को दो कारकों पर विशेष ध्यान रखना पड़ता है एक तो यहां की आदिवासी बहुल आबादी और दूसरी यहां की कृषि प्रधान अर्थव्यस्था। राज्य की नीतियां…
भाजपा के राष्ट्रव्यापी संगठन पर्व सदस्यता अभियान में सदस्य संख्या दस करोड़ से अधिक हो गई है।पूर्व की 18 करोड़ की सदस्य संख्या में दस करोड़ नए सदस्य जोड़ने का…
छत्तीसगढ़ राज्य ने सरकार की योजनाओं और कार्यों को पारदर्शी और कुशल बनाने के लिए डिजिटल तकनीक को अपना प्रमुख साधन बनाया है। जनता की सुविधाओं को ध्यान में रखते…
वर्तमान समय में टूटते बिखरते समाज को पुनः संगठित करने के लिये जरूरत है उर्मिला जैसी आत्मबल और चारित्रिक गुणों से भरपूर महिलाओं की जो समाज को एकजुट रख राष्ट्र…