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पठान काम की बात ना करना अपन से

Updated on 04-10-2021 01:26 PM
पठान काम की बात ना करना  अपन से।
 हम तो पटियो पर
 बैठे ही अच्छे हैं ।।
 दिन भर सोते हम
 रात में जागते ।।
 मियां मिठाई तो
 मीठी तब लगती है ।
 जो बिना मेहनत
 के मिल जाए।।
दिन में सोऊं,रात भर जागऊं,मेरी मर्ज़ी,बड़े तालाब पर छत डलवाऊं मेरी मर्ज़ी,रात भर पटियों पर गुज़ारु मेरी मर्ज़ी,पान गुटके से सड़क को रंग डालूं मेरी मर्ज़ी । यह पुराने भोपाल के नौजवान,दिन भर सोना,रात में उल्लूओं की तरह जागना,रात भर गलियों के पटियों पर बैठकर खाली जेब लेकर लाखों-करोड़ों की बातें करना । अगर कोई इनसे यह सवाल पूछ ले क्यों पठान कहां तक पढ़े हो और क्या काम करते हो इस पर भाई को इतना गुस्सा आ जाता है,और कहते हैं, पढ़ेंगे लिखेंगे तो बनेंगे ख़राब,दिन भर सोएंगे,रातों में जागेंगे,तो बनेंगे नवाब, मियां हम तो आराम पसंद लोग हैं,दिन भर ख़्वाबों के आगोश में रहते हैं,तुम लोग तो मज़दूरो जैसे हो सुबह से निकल जाते हो दिन भर मेहनत करते हो फिर भी भूखे रह जाते हो,हम नवाबों को देखो,हमने हमारी भोपाल की रिवायत को क़ायम रखा है,हमारे कुछ बुजुर्गों ने आलसी क्लब यानी काहिल क्लब बनाया था,इस क्लब में आलसी लोगों को ही आने की इजाज़त हुआ करती थी और इस क्लब के सदस्य बनने के लिए मियां अपना मनपसंद तकिया ले जाना पड़ता था,अपना तकिया ले जाओ और इस क्लब के मेंबर बन जाओ । आपको विश्वास नहीं होगा भोपाल में आलसी क्लब यानी काहिल क्लब की स्थापना 1932 में की गई थी I
भोपाल की तंग गलियों के बीच बने महमूद मियां के मकान से रात के तीन बजे तक रह-रहकर ठहाकों की आवाज़े आना एक आम बात थी । कोई शेर-ओ-शायरी कर रहा होता था, तो कोई लतीफा सुनाता था ।
हुक्के की गुड़गुड़ की आवाज़ रात के अंधेरों में गूंजती थी।  भोपाल शहर का यह माजरा आज से कोई 90 साल पहले का था। उस वक्त़ शहर में काहिलों की जमात लगा करती थी। इस जमात को 'दारूल कोहला' का नाम दिया गया था। इस अरबी शब्द का मतलब हुआ काहिल यानी आलसियों की जमात। भोपाल शहर को यहां के खूबसूरत तालाब,लाजवाब ज़ायका और जीने के नवाबी-तौर तरीकों के लिए जाना जाता है। इन सब खूबियों में एक बात हर बार छूट जाती है ,  वह है शहर का बेफिक्री वाला मिजाज़। चाहे इसे आलस कहें या सुस्ती, लेकिन शहर के लोगों ने वर्षों पहले फुर्सत से जीना सीख लिया था। कहते हैं बड़े तालाब का ठहरा हुआ पानी इस शहर को यह नायाब अंदाज़ देता है।  महमूद मियां ने आलसी क्लब यानी  काहिल की जमात में शहर के मशहूर लोगों को शामिल किया और इसमें रहने के कुछ सख्त नियम-कायदे बनाए। यहां शाम ढलते ही दिनभर के सोए और थके-मांदे 'काहिल' जमात में पहुंच जाते थे और फिर शुरू होता है सुस्ती दिखाने का सिलसिला। इस जमात का ज़िक्र शहर के इकबाल लाइब्रेरी में मौजूद उर्दू मैग्जीन ‘फिक्र-ओ-आगही' में भी मिलता है,जिसमें साहित्यकार शर्की खालिदी ने काहिलों की जमात पर तफ्सील से लिखा है।
जमात के नियम इस कदर सख्त बनाए गए थे कि एक पल के लिए भी महफ़िल में शिरकत करने वाले लोगों के आलस में कोई कमी न आए। मसलन,घर में दाखिल होने के बाद कोई खड़ा नहीं रहेगा,न ही बैठेगा। इस महफिल में सोने की इजाज़त तो बिल्कुल भी नहीं थी। जमात के सदस्य घर में झुककर दाख़िल होंगे। जो काम करना है लेटे हुए ही करिए और अगर इस नियम को तोड़ा तो फिर पूरी रात आपकी शामत। एक पल के लिए भी अगर खड़े हुए तो बाकी सदस्यों को पानी,पान और हुक्का पिलाने की सज़ा दी जाती थी। शेर-ओ-शायरी का यह सिलसिला 9 बजे से शुरू होकर रात के 3 बजे तक चलता। पूरा मोहल्ला लतीफों पर उठे ठहाकों और शेर पर दिए दाद से भर उठता था। इस महफ़िल में लोगों की जान पर बन आती लेकिन आलस नहीं छोड़ते थे। एक बार मौलवी मेहमदी लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। इस बीच जलता हुआ हुक्का उनके शरीर पर गिर गया। आग बढ़ने लगी, लेकिन वे नहीं उठे। लेटे-लेटे ही उन्होंने हुक्का नीचे फेंक दिया।  इस जमात में शामिल होने की फीस एक तकिया हुआ करती थी। यानी तकिया जमा किया और आप इस क्लब के सदस्य बन गए।
इस जमात के सदस्य सद्दाफ मियां के बारे में एक किस्सा मशहूर है। वे इस कदर आलसी थे कि अपनी जगह से हिलते तक नहीं थे। बस फरमान सुनाते थे। सद्दाफ मियां को पता रहता था कि घर में कौन सी चीज़ कहां रखी है,लेकिन मजाल है कि वे उठकर उसे ले आएं।
आलसियों के क़िस्सों में एक क़िस्सा और  मशहूर है। एक बार एक आलसी के शरीर पर मक्खी बैठ गई लेकिन वह हटा नहीं रहा थी। दूसरों ने टोका तो बोले,आज मक्खी ही बैठी है, कल तो कुत्ता बैठा था लेकिन मैंने नहीं हटाया। इतना कहना था कि महफ़िल ठहाकों से गूंज उठी।यह फुर्सतिया कल्चर आज भी पुराने शहर की गली-गली में देखा जा सकता है। यहां सुबह तब होती है जब सूरज सर चढ़ने लगता है और शाम ढलते-ढलते शहर की रौनक बढ़ती जाती है। इस रौनक  में भागदौड़ नहीं बल्कि सुकून नजर आता है।
आलसियों की जमात का एक किस्सा और मशहूर है, एक पटियाबाज़ मायूस सा होकर बैठा था,किसी ने हाल पूछा तो बोला, मुझे एक बहुत बड़ा टेंडर मिला है लेकिन काम कैसे शुरू करूं ये सूझ नहीं रहा।’ आगे पूछने पर बोला कि मुझे बड़े तालाब पर ढक्कन लगाने का काम मिला है ताकि पानी गंदा न हो और न ही धूप में तालाब सूखे। इतनी लंबी फेंकने के बाद ठहाके तो लाजमी थे । आज भी आपको पुराने भोपाल में आलसीयो  की जमात दिख जाएगी पटियों पर बैठे-बैठे पूरी रात गुज़ार देंगे,बातें बड़ी-बड़ी हक़ीक़त से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं,दिन भर सोना रात में पटियों पर बैठकर पुलिस से लुक्का चुप्पी करना, इसलिए मैं कहता हूँ अजब है गज़ब है मेरा भोपाल ।
काम की बात ना करना भाई।
 हम तो बैठे ठाले हीअच्छे हैं‌‌।
 थकान से क्यों रूबरू होयें।
 जब अंगूर खट्टे और कच्चे हैं।
मोहम्मद जावेद खान, लेखक, संपादक,  भोपाल मेट्रो न्यूज़           ये लेखक के अपने विचार है I

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