परिसीमन:उत्तर और दक्षिण में संतुलन बैठाना सबसे बड़ी चुनौती
Updated on
02-07-2023 01:44 PM
1976 के बाद अब 2026 में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का परिसीमन नये सिरे से करते समय उत्तरी राज्यों और दक्षिणी राज्यों में जो हितों के टकराव व चिंतायें सामने आयेंगी उनके बीच समन्वय बिठाना केन्द्र सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी। 1976 में भी यह चिन्तायें उभर कर सामने आई थीं और उस समय यह हल निकाला गया था कि 2025 तक देश में कोई परिसीमन नहीं होगा तथा तब तक लोकसभा व विधानसभाओं में सीटों की संख्या यथावत रहेंगी। बाद में लम्बे समय तक आरक्षित व अनारक्षित क्षेत्रों का एक-सा स्वरुप रहने के कारण बीच का रास्ता निकालते हुए युक्तियुक्तकरण का रास्ता अपनाया गया ताकि कोई क्षेत्र बहुत छोटा और कोई क्षेत्र बहुत बड़ा न हो जाये। इसके तहत केवल सीटों का स्वरुप बदला लेकिन उनकी संख्या यथावत रही। जिस राज्य में जितनी लोकसभा व विधानसभा सीटें थीं उनकी संख्या यथावत रही लेकिन राज्य के भीतर युक्तियुक्तकरण कर दिया गया। वैसे 1976 के पहले हर दस साल में जनसंख्या के आधार पर परिसीमन होता था जो अब नये सिरे से 2026 में होना है।
अभी तक परिसीमन का आधार आबादी रहा है और ऐसी सूरत में जो राज्य परिवार नियोजन जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों को अपनाते हैं उनके यहां उतनी आबादी नहीं बढ़ी जितनी आबादी उत्तरी राज्यों में बढ़ी है जहां परिवार नियोजन को लोग स्वेच्छा से नहीं अपना रहे। यही कारण है कि दक्षिण के राज्यों को यह चिंता है कि उनका राजनीतिक महत्व कम हो जायेगा क्योंकि उत्तरी राज्यों में सीटों में काफी वृद्धि हो जायेगी। इसलिए अभी से दक्षिण भारतीय राज्यों ने अपनी चिंतायें सामने रख दी हैं। इस पैदा होने वाले असंतुलन से बचने के लिए केंद्र सरकार को आबादी के अलावा कुछ अन्य विकल्प भी इसमें जोड़ने होंगे। यही सबसे बड़ी समस्या है कि आखिर इसमें क्या जोड़े ताकि जिन राज्यों को आशंका है उनकी चिन्ताओं का समाधान हो सके। नया संसद भवन बनने के बाद अब नये सिरे से परिसीमन के आधार को लेकर बहस छिड़ी हुई है क्योंकि अभी तक जनसंख्या के आधार पर ही सीटों की संख्या तय होती आई है, लेकिन 2021 में जनगणना नहीं हुई है इसलिए 2011 की जनगणना के आधार पर ही परिसीमन करना होगा। उस समय देश की आबादी 121 करोड़ थी। 1976 में 10 लाख की आबादी पर एक लोकसभा सीट निर्धारित की गयी थी जब करीब 54 करोड़ 79 लाख 49 हजार आबादी थी। 2011 की जनसंख्या के आधार पर लोकसभा में सीटों की संख्या 888 के अनुपात में औसत 14 लाख की आबादी पर एक सीट के हिसाब से यदि आंकलन किया जाए तो करीब 864 सीटें होंगी, क्योंकि कई केंद्र शासित राज्यों की आबादी 5 लाख से भी कम है यदि वहां अभी औसतन एक-एक सीट दी जाये तो 881 सीटें हो जायेंगी। ऐसे में उत्तरी राज्यों में दक्षिणी राज्यों की तुलना में आबादी अधिक बढ़ने से बहुमत का जादुई आंकड़ा नये परिसीमन में भी उत्तर भारत के पास ही रहेगा, जिसे दक्षिण के राजनेता नाइंसाफी निरुपित कर रहे हैं।
असहमति के स्वर और अनुमानित सीटों की संख्या
उपलब्ध जानकारी के अनुसार जिन राज्यों में लोकसभा की सीटें बढ़ेंगी उनमें उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल , बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ , कर्नाटक, राजस्थान और गुजरात आदि राज्य शामिल हैं। जबकि आबादी के मान से परिसीमन होता है तब दक्षिण भारत के राज्यों के नेताओं का तर्क है कि उन्होंने परिवार नियोजन के कार्यक्रमों को सफल बनाने में सक्रिय भूमिका निभाई जबकि उत्तर पश्चिम भारत के राज्य कार्यक्रम को प्रभावी तरीके से लागू नहीं कर पाये। यदि जनसंख्या के आधार पर ही सीटों का निर्धारण होता है तो फिर उत्तरी और दक्षिणी राज्यों में टकराव शुरू होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। इसका कारण यह है कि दक्षिण की तुलना में उत्तरी राज्यों की सीटें काफी ज्यादा हो जायेंगी, इसको लेकर अभी से असहमति के स्वर भी उभरने लगे हैं। उत्तरप्रदेश में 80 से बढ़कर 142, बिहार में 40 से बढ़कर 74, असम में 14 से बढ़कर 22, पश्चिम बंगाल में 42 से बढ़कर 65, दिल्ली में 7 से बढ़कर 11, पंजाब में 13 से बढ़कर 19, हरियाणा में 10 से बढ़कर 18 लोकसभा सीटें हो जायेंगी। मध्यप्रदेश में 29 से बढ़कर 51, राजस्थान में 25 से बढ़कर 48, गुजरात में 26 से बढ़कर 43, महाराष्ट्र में 48 से बढ़कर 80, झारखंड में 14 से बढ़कर 23 और उड़ीसा में 21 से बढ़कर 29 एवं छत्तीसगढ़ में 11 से बढ़कर 18 सीटें हो जायेंगी। दक्षिण भारत के राज्यों में कर्नाटक में 28 से बढ़कर 43, केरल में 20 से बढ़कर 23, आंध्रप्रदेश में 25 से बढ़कर 60, तेलंगाना में 17 से बढ़कर 25 और तामिलनाडु में 39 से बढ़कर 51 सीटें हो जायेंगी। अभी भी परिसीमन की विसंगतियां यदि देखी जायें और 2011 की जनसंख्या को आधार माना जाए तो दिल्ली की जनसंख्या 1 करोड़ 67 लाख 87 हजार 941 थी वहां लोकसभा की 7 सीटें हैं और यहां पर सीटों का आधार औसतन 24 लाख जनसंख्या पर एक सीट का आता है। जबकि लक्षद्वीप में 2011 में आबादी 64 हजार 473 थी लेकिन वहां लोकसभा की एक ही सीट है इसी प्रकार दमन दीव की आबादी 2 लाख 43 हजार 447 थी वहां भी एक सीट है। क्षेत्रफल के हिसाब से यदि देखा जाए तो केरल का क्षेत्रफल 38 हजार 863 वर्ग किलोमीटर है और वहां लोकसभा की 20 सीटें हैं, वहीं राजस्थान के जैसलमेर जिले का क्षेत्रफल केरल के बराबर है लेकिन वहां लोकसभा की एक भी सीट नहीं है।
और यह भी
राजनीतिक गलियारों में अनुमानों के घोड़े इस बात को लेकर दौड़ रहे हैं कि क्या मध्यप्रदेश में उधार के सिंदूर से बनी भाजपा सरकार को बचाते हुए राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में भारतीय जनता पार्टी अपनी सरकार मोदी मैजिक यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे के सहारे बनाने में सफल रहेगी। इन राज्यों में उसकी विजय पताका फहराना इस बात पर निर्भर करेगा कि मोदी का जादू मतदाताओं के सिर पर कितना चढ़कर बोल रहा है। जहां तक मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का सवाल है यहां सरकार का रास्ता एक प्रकार से आदिवासियों के बीच से होकर गुजरता है इसलिए भाजपा ने अपनी पूरी ताकत इस वर्ग के मतदाताओं को अपने से जोड़ने में लगा रखी है। बीते शनिवार एक जुलाई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मध्यप्रदेश के आदिवासी प्रधान शहडोल जिले में वीरांगना रानी दुर्गावती बलिदान दिवस समारोह में शिरकत की और राष्ट्रीय सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन मिशन का आगाज करते हुए 20 जनजातीय बहुल जिलों के 2 लाख हितग्राहियों को सिकल सेल जेनेटिक काउंसिलिंग कार्ड का वितरण किया। आदिवासी वर्ग को भाजपा कितना तरजीह दे रही है यह इसी बात से पता चलता है कि उसने एक आदिवासी महिला को देश का राष्ट्रपति भी बनवाया है। प्रधानमंत्री के रुप में पिछले दस साल में आदिवासी प्रधान शहडोल जिले में नरेंद्र मोदी का यह चौथा दौरा है। लालपुर के बाद पकरिया गांव में अमराई के तले खाट पर बैठकर फुटबाल खिलाड़ी, जनजाति समाज के मुखिया, लखपति दीदी और पेसा समिति के प्रमुखों के साथ उन्होंने संवाद किया और बाद में सामूहिक भोजन में शामिल हुए। प्रधानमंत्री के साथ मध्य प्रदेश के राज्यपाल मंगूभाई पटेल, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित 9 केंद्रीय मंत्री और मध्यप्रदेश के 6 मंत्री तथा पांच सांसद भी इस अवसर पर मौजूद रहे।
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