मृत्यु उपरांत मृत्यु भोज, गिफ्ट बांटना, तेरवी, पगडी, पिंड दान, बाल देना और भी अलग-अलग मान्यता की रस्में यह सब पता नहीं किसने बनाई और क्यों बनाई पर इसका किसी प्रकार का कोई असर दिवंगत आत्मा से नहीं होता है। जिस परिवार में दिवंगत होते हैं वे शोक मे रहते है और उस बीच ऐसी सब रस्मे करना चाहे उस परिवार के पास पैसा हो या ना हो यह सब गलत हो रहा है। इसे कौन रोकेगा आप और हम सामूहिक प्रयास करें निश्चित रूप से यह सब रीति रिवाज बंद हो सकते हैं। खास करके बुजुर्ग लोग और परिवार के रिश्तेदार यह ज्यादातर जोर देते हैं इन रस्मो को निभाने के लिए। इसी तरह कई गैर वाजिब धार्मिक खर्चे हैं जिन का सदुपयोग समाज के लिए हो सकता है जैसे कि चुनरी यात्रा गणेश उत्सव और नवदुर्गा पूजा जरूर हो पर पानी की तरह उस पर पैसा नहीं बहाना चाहिए, यह पैसा समाज के काम आना चाहिए। बड़े-बड़े टेंट लगाकर भागवत कथा होती है यदि कथा कहने वाले बिना पैसे लिए करें तो वह वास्तविक धर्म की सेवा मानी जाएगी पर जो पैसा लेकर करते हैं वह एक तरह से व्यापार हो गया। शादी ब्याह मे तो अनेक रस्में बना दी, पानी की तरह व्यर्थ का खर्चा और समय की बर्बादी। लेन-देन को लेकर कटुता इतनी गलत प्रथाएं बना रखी है कि घोड़ी वाला तक नेक मांगने के लिए दूल्हे को रोक लेता है जबकि उसको घोड़ी का किराया मिल रहा है। नेक मांगना प्रथा गलत है। अशोक मेहता, इंदौर (लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद्) ये लेखक के अपने विचार है I
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