पहले दौर था जब संयुक्त हिंदू परिवार हुआ करते थे उस दौर में बच्चे का पालन पोषण पूरा परिवार देखता था। बच्चे कब बड़े हो जाते थे माता-पिता को भी मालूम नहीं पढ़ पाता था। बच्चे भी बड़े खुशी से रहते थे कि उनको लाड प्यार करने वाले परिवार में कई लोग होते थे। उस दौर में घर के मुखिया की बात सब मानते थे। इस दौर में भाई भाई भी साथ नहीं रह पा रहे है वह तो ठीक, कई जगह बाप बेटे भी साथ में नहीं रह पा रहे है। इस सब अव्यवस्था की मार सबसे ज्यादा बच्चे के लालन-पालन पर पड़ी। सीमित परिवार और आर्थिक स्थिति के चलते हैं बच्चों के पालन पोषण की दिशा ही बदल गई। कहीं मां-बाप दोनों काम करते हैं, कहीं फ्लैट या मकान छोटा है, कहीं मां-बाप में से किसी एक की तबीयत ठीक नहीं रहती, कहीं-कहीं पति पत्नी में तनाव बना रहता है इन सब स्थिति में बच्चे के पालन पोषण पर पड़ने लगता है। यदि माता-पिता के पास समय कम है तो बच्चा घर में और आसपास बाहर जो देखता है उसी बात से प्रभावित होता है। अच्छे बुरे की व्याख्या वह स्वयं करने लगता है। कई बच्चों में एक अजीब सी सोच दिमाग में बैठ जाती है। वह बचपन से ही किसी भी अन्याय अत्याचार या तकलीफ का सामना करने में असमर्थ हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनका शोषण भी हो जाता है। विषम परिस्थिति में बच्चे गलत राह पर जा सकते हैं। अतः जरूरी है परिवार के सदस्य आपस में इतने घुले मिले हो ताकि अपने मन की बात एक दूसरे से कह सकें। जीवन शैली कैसी हो इस पर आपस में मंथन करे। बच्चों ने मां-बाप की स्थिति समझना चाहिए और मां-बाप ने बच्चों का मन पढ़ लेना चाहिए।
अशोक मेहता, इंदौर (लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद्) ये लेखक के अपने विचार है I
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