मध्यप्रदेश में फिर से चुनावी मुकाबले का एक और अवसर आ गया है क्योंकि यहां एक लोकसभा तथा तीन विधानसभा उपचुनाव होने जा रहे हैं। इन उपचुनावों में एक बार पुनः भाजपा और कांग्रेस के बीच वर्चस्व का संग्राम होने की पूरी पूरी संभावना है क्योंकि संभव है कि अब 2023 के विधानसभा चुनाव के पूर्व यही एक बड़ा अवसर होगा इसलिए दोनों दल अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखेंगे। वैसे तो भाजपा में चुनाव संगठन लड़ता है लेकिन फिर भी चुनावी मुकाबला मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ के चेहरे के इर्द-गिर्द सिमटा रहेगा। शिवराज की तुलना में कमलनाथ के लिए उपचुनाव में उनकी प्रतिष्ठा का सवाल ज्यादा रहेगा क्योंकि 28 विधानसभा उपचुनावों में कांग्रेस 2018 के विधानसभा चुनाव में जीते अपने क्षेत्रों में से केवल 8 को ही बचा पाई थी जबकि भाजपा ने उसमें अपनी एक सीट गंवा दी थी। दमोह उपचुनाव उसके बाद हुआ और उसमें कांग्रेस ने अपनी जीत दर्ज कराई। कांग्रेस नेता और कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए यह जरूरी है कि कांग्रेस कम से कम अपनी दोनों विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज कराए। भाजपा के लिए यह जरूरी है कि वह हर हाल में खंडवा लोकसभा उपचुनाव जीते जबकि कांग्रेस इस क्षेत्र में कड़ी चुनौती देने के प्रयास में है। अपने-अपने वर्चस्व वाली सीटें बचाना और दूसरे के किले में सेंधमारी करना भाजपा और कांग्रेस के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है। उपचुनाव नतीजों से ही यह पता चल सकेगा एक दूसरे पर वर्चस्व की लड़ाई में कौन सफल रहता है या मुकाबला बराबरी का होता है । दल बदल के कारण सत्ता गंवाने के बाद 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस कोई बड़ा चमत्कार नहीं कर पाई थी लेकिन दमोह विधानसभा के उपचुनाव के नतीजों से भाजपा पर जो मनोवैज्ञानिक दबाव बना उसने कांग्रेस को अति- आत्मविश्वास से भर दिया। लेकिन इन चार उपचुनावों में कांग्रेस को इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि कभी-कभी अति आत्मविश्वास हार का बड़ा कारण बन जाता है। दमोह उपचुनाव की हार को भाजपा नेतृत्व पचा नहीं पाया और इसका नतीजा निकला कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ ही पूरी भाजपा सतर्क और सजग हो गई और वह चारों उपचुनावों को पूरी गंभीरता से लड़ने जा रही है । वह काफी समय पहले से ही कमर कस चुकी है। शिवराज तथा प्रदेश अध्यक्ष सांसद विष्णु दत्त शर्मा लगातार चुनाव क्षेत्रों में अपनी आमद दर्ज करा चुके हैं। अब एक लोकसभा सहित तीन विधानसभा सीटों के उपचुनाव की तारीखें घोषित हो गयीं हैं लेकिन कांग्रेस के नेता मैदान में दिखाई नहीं दे रहे हैं। कांग्रेस में यह परंपरा है कि जब उसके नेता जो कहते हैं वही कार्यकर्ता करते हैं और यदि प्रदेश अध्यक्ष किसी भी कारण से ज्यादा दिनों तक प्रदेश से बाहर रहते हैं तो फिर चुनावी जमावट की दृष्टि से पार्टी हाशिये पर नजर आती है। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की अनुपस्थिति कांग्रेसियों को भी खल रही है। हालांकि अब उम्मीद है कि कांग्रेस भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करायेगी, क्योंकि कमलनाथ 2 अक्टूबर गांधी जयंती को भोपाल आ गए हैं। उपचुनाव और भावी राजनीति की दिशा खंडवा में लोकसभा सीट का उपचुनाव होना है जबकि जोबट, पृथ्वीपुर और रैगांव में विधानसभा के उपचुनाव हैं। चारों सीटों पर उपचुनाव की स्थिति मौजूदा सांसद और विधायकों के कोरोना से निधन के कारण बनी है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में खंडवा सीट पर भाजपा के नंदकुमार सिंह चौहान निर्वाचित हुए थे। जोबट और पृथ्वीपुर की विधानसभा की सीट कांग्रेस जीती थी। जोबट की विधायक कलावती भूरिया और पृथ्वीपुर के विधायक बृजेन्द्र सिंह राठौर का निधन कोरोना संक्रमण के कारण हो गया था। रैगांव की सीट से भाजपा विधायक जुगल किशोर बागरी का निधन भी कोरोना वायरस का संक्रमण बढ़ जाने के कारण हुआ था। इन चुनावों की विशेषता यह है कि यह सभी अलग-अलग क्षेत्रों में हो रहे हैं और यदि इनके नतीजे किसी एक पार्टी के लिए एक- तरफा होते हैं तो उससे पता चलेगा कि आखिर मतदाता का रुझान और मानस किस ओर है। जिन तीन सीटों पर विधानसभा के उपचुनाव हो रहे हैं वे राज्य के अलग-अलग अंचल वाली हैं। पृथ्वीपुर की सीट बुंदेलखंड क्षेत्र में आती है। जबकि रैगांव विंध्य प्रदेश में हैं। जोबट विधानसभा और खंडवा लोकसभा की सीट मालवा-निमाड़ का हिस्सा है। विधानसभा का पिछला उपचुनाव दमोह की सीट पर हुआ था। यह सीट बुंदेलखंड की है। 2018 के आम चुनाव और अप्रैल 2021 में हुए उपचुनाव में दमोह की सीट कांग्रेस के खाते में गई थी। दमोह में उपचुनाव की स्थिति दलबदल के कारण बनी थी। कांग्रेस के राहुल लोधी ने भाजपा में शामिल होने के बाद विधायकी से इस्तीफा दे दिया था। दमोह में कांग्रेस की जीत के पीछे भाजपा कार्यकर्ताओं की उम्मीदवार से नाराजगी तो एक कारण था ही लेकिन इससे बड़ा दूसरा कारण अधिकांश लोधी मतदाताओं की एकजुटता भाजपा के पाले में थी तो अधिकांश दूसरी जातियों का झुकाव कांग्रेस की ओर हो गया था। भाजपा ने दलबदल कर आए राहुल लोधी को ही उम्मीदवार बनाया था। कमलनाथ के सामने अलग-अलग चुनौतियां तीन विधानसभा सीट और एक लोकसभा की सीट पर कांग्रेस के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं, हर सीट की चुनौती अलग है। मुख्यतः दो चुनौतियां कांग्रेस के सामने हैं, पहली चुनौती गुटबाजी की है तो दूसरी बड़ी चुनौती पार्टी के नेतृत्व को लेकर है। पिछले साढ़े तीन साल से कमलनाथ राज्य में कांग्रेस को अपने ढंग से चला रहे हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पंद्रह साल बाद सत्ता में वापस लौटी तो कमलनाथ ने इसे अपनी रणनीति की जीत के तौर पर लिया। कांग्रेस के दिग्गज नेता मसलन ज्योतिरादित्य सिंधिया, पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह तथा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष अरुण यादव सरकार बनने के बाद हाशिए पर डाल दिए गए। सिंधिया, कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो चुके हैं। अजय सिंह और अरुण यादव अपने आपको उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। अजय सिंह के पिता स्वर्गीय अर्जुन सिंह कांग्रेस पार्टी के कद्दावर नेता रहे हैं। जबकि अरुण यादव के पिता स्वर्गीय सुभाष यादव दिग्विजय सिंह सरकार में उप मुख्यमंत्री रहे हैं। बड़े किसान नेता माने जाते थे और वह सहकारिता क्षेत्र के पुरोधा के रूप में स्थापित थे। कमलनाथ से पहले अरुण यादव प्रदेश कांग्रेस के साढ़े चार साल तक अध्यक्ष रहे हैं और केन्द्र में मंत्री भी रहे। और यह भी
पूर्व मुख्यमंत्री एवं प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ के लिए अजय सिंह और अरुण यादव को साधना समय की दरकार है। दोनों ही नेताओं के प्रभाव वाले क्षेत्रों में उपचुनाव हैं। खंडवा सीट पर अरुण यादव की दावेदारी को नकारना भी जोखिम भरा हो सकता है। प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में यादव ओबीसी चेहरा हैं। निमाड़ के ओबीसी वोटरों में उनकी अच्छी पैठ है। अजय सिंह के प्रभाव वाले सतना जिले की रैगांव सीट पर विधानसभा के उपचुनाव हैं। यह सीट अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित है। जुगल किशोर बागरी इस सीट पर चुनाव जीतते रहे हैं। अजय सिंह की उपेक्षा कर उप- चुनाव जीतना कांग्रेस के लिए मुश्किल भरा होगा। यही कारण है कि पिछले दिनों जब अजय सिंह का जन्मदिन आया तो उनके घर बधाई देने पहुंचने वालों में राज्य के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय भी थे। इन मुलाकातों के बाद अजय सिंह के पार्टी छोड़ने की चर्चाएं भी चल निकलीं। इन चर्चाओं पर अजय सिंह ने कहा कि मैं कांग्रेसी था और रहूंगा। इसी तरह की चर्चाएं पूर्व में अरुण यादव को लेकर भी चलती रही हैं। निवाड़ी जिले की पृथ्वीपुर सीट के समीकरण कमलनाथ के अनुकूल बनते दिखाई दे रहे हैं। जबकि जोबट में पूर्व केन्द्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया को एक बार फिर अपना वर्चस्व सिद्ध करना पड़ रहा है।
-अरुण पटेल, लेखक, प्रबंध संपादक, सुबह सवेरे ये लेखक के अपने विचार है I
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