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क्या किन्नर भी शौर्य की गाथाएं नहीं रच सकते ?

Updated on 18-12-2020 03:30 PM
देश में किसान आंदोलन पर चल रहे राजनीतिक घमासान के बीच पटना हाई कोर्ट का एक अहम फैसला कुछ अनसुना-सा रहा। इसमें कोर्ट ने बिहार सरकार से सवाल किया है कि उसने राज्य में सिपाही (कांस्टेबल) की भर्ती के आवेदन में किन्नरों (ट्रांसजेंडर) के लिए कोई प्रावधान क्यों नहीं किया? कोर्ट ने बिहार सरकार को निर्देश दिए कि वह भर्ती प्रक्रिया में आवश्यक सुधार करे और किन्नर समुदाय के योग्य लोगों को इस पद के लिए आवेदन करने दे। हालांकि कुछ और हाई कोर्ट पहले भी किन्नरों के पक्ष में ऐसे निर्णय दे चुके हैं। वर्तमान में पुलिस भर्ती के आवेदन में लिंगबोधक दो ही काॅलम हैं, पुरूष और महिला। जाहिर है कि जब अावेदन पत्र में किन्नर शब्द का उल्लेख ही नहीं है तो इस समुदाय के लोग अर्जी दे ही नहीं सकते। लेकिन कोर्ट के आदेश का अनुपालन किन्नरों के सामाजिक पुनर्वास और उन्हें समाज की मु्ख्‍य धारा में लाने की कोशिशों की दृष्टि से अहम कड़ी होगी। यूं सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2014में दिए अपने फैसले में ट्रांसजेंडरों को तृतीयलिंगी के रूप में स्वीकार करने, उन्हें आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा मानने तथा किन्नरों को भी प्रगति के समान अवसर देने के फैसले के बाद कई क्षेत्रों में किन्नरों की नियुक्तियां हुई हैं, जिनमें कुछ महत्वपूर्ण पद भी शामिल हैं। इन किन्नरों की कार्य क्षमता में कुछ उन्नीसा पाया गया हो, ऐसी जानकारी अभी सामने नहीं आई है। माना जा सकता है समाज में यथोचित सम्मान और दायित्वबोध उन्हें और कार्यक्षम बनाता है। बावजूद इसके, पुलिस और सुरक्षाबलों में किन्नरों की तैनाती को लेकर समाज में एक व्यापक हिचक और प्रश्नवाचकता रही है। हालांकि आज दुनिया के 19 देशों में सुरक्षा बलों में किन्नर तैनात हैं। भारत सरकार ने भी इस दिशा में सोचना शुरू कर ‍िदया है। इस साल जुलाई में ही गृह मंत्रालय ने एक पत्र लिखकर जानकारी मांगी थी कि केन्द्रीय सुरक्षा बलों और सेना में ट्रांसजेंडरों की नियुक्ति कैसे की जा सकती है। आश्चर्य नहीं कि नाच- गाकर नेग मांगने वाला किन्नर समुदाय कल को देश और समाज की सुरक्षा में तैनात नजर आए।  बिहार हाई कोर्ट का फैसला इसलिए उल्लेखनीय है कि बिहार में ही पहली बार 2006 में किन्नरों को कर वसूली के काम पर लगाया गया था। यूं देखा जाए तो किन्नर एक अभिशप्त समुदाय है। अर्थात लैंगिक दृष्टि से वह न तो पुरूष है और न ही नारी है। भारत में ‍िकन्नरों की संख्या करीब 50 लाख बताई जाती है। ज्यादातर किन्नर जन्मजात होते हैं और मां-बाप को यह पता चलते ही वो उन्हें किन्नरों को सौंप देते हैं तो कुछ को बाद में किन्नर बनाया जाता है। जिसे वो ‘निर्वाण’ प्रथा कहते हैं। किन्नरों को भारत में हिजड़ा, छक्का आदि कई नामों से पुकारा जाता है। अंग्रेजी के ट्रांसजेंडर का हिंदी अनुवाद तृतीय लिंगी अथवा तृतीय पंथी किया गया है, लेकिन वो बोलचाल की दृष्टि से बहुत सहज नहीं है। हाल के कुछ वर्षों में हिजड़ा के बजाए किन्नर शब्द ज्यादा प्रचलन में है, ‍िजसे ट्रांसजेंडरो ने भी काफी हद तक स्वीकार कर लिया है। पाकिस्तान में उन्हें ख्वाजासरा के नाम से जाना जाता है। किन्नरों का का अपना धर्म और परंपराएं हैं, जो हिंदू मुसलमान धर्मों का ‍मिला जुला रूप है। वो बहुचार माता, रेणुका माता और भगवान शिव को पूजते हैं और निजी ‍िजंदगी में अपने मूल धर्मों का पालन भी करते है। किन्नरों में गुरू का बड़ा महत्व है। लेकिन उनकी परंपराअों, रीति-रिवाजों में उत्सवधर्मिता से ज्यादा आत्मग्लानि और विवशता का भाव दिखता है। उनकी अपनी गोपनीय भाषा है, जिसे ‘हिजड़ा फारसी’ कहते हैं। ‘काम सूत्र’ में किन्नरों को ‘तृतीय प्रकृति’ कहा गया है। महाभारत में अर्जुन ने अज्ञातवास में किन्नर बनना स्वीकार किया था। यानी मानव समाज में उनकी उपस्थिति प्राचीन काल से रही है। इसके बावजूद वो समाज के हाशिए पर ही जीते-मरते आ रहे हैं। लेकिन जबसे किन्नरों को कानूनी मान्यता मिली है, उनमें से कई स्वाभिमानी किन्नरों ने नाच-गाकर जबरन नेग वसूली का धंधा त्यागकर सम्मान जनक जिंदगी का रास्ता चुना है, बावजूद इसके कि समाज का बहुतांश उन्हें आज भी ‘हिजड़े’ के रूप में हिकारत से देखता है। अंग्रेजों ने तो उन्हें क्रिमिनल ट्राइब की श्रेणी में रख दिया था। कई जगह किन्नर सेक्स वर्कर के रूप में जिंदगी गुजारते हैं। किन्नरों का अपना एक बड़ा संगठन है, जिसका नाम तृतीय पंथी संगठन है। अब तो धार्मिक दृष्टि किन्नर अखाड़ा भी है।
बहरहाल सर्वाधिक विवाद ट्रांसजेंडरों को सशस्त्र बलों में शामिल करने या न करने को लेकर है। इसमें दो तरह की राये हैं। पहली तो इसके विरोध में है तो दूसरी इसके पक्ष में है। विरोधियों का कहना है कि ट्रांसजेंडर होना दरअसल एक मानसिक विकार है। लिहाजा ऐसे लोग सुरक्षा बलों और सेना में जाने के योग्य नहीं हैं। सुरक्षाकर्मियों और सैनिकों की तैनाती तो ऐसे दूरस्थ और ‍िनर्जन इलाकों में होती है, जहां उनके अलावा शायद ही कोई होता है। इन विपरीत ‍परिस्थितियों में मानसिक मजबूती और धैर्य बेहद जरूरी है, जो किन्नरों में शायद न हो। अमेरिका में एक अध्ययन में यह भी सामने आया कि ट्रांसजेंडरों की तैनाती से उनका मेडिकल खर्च पहले से काफी बढ़ गया। दूसरे, ट्रांसजेंडरो की तैनाती से सेना की इकाई में विभाजन का खतरा भी है। इसके विपरीत ट्रांसजेंडरों की सुरक्षा बलों में तैनाती के समर्थको का कहना है कि किन्नर समुदाय को सुरक्षा कार्य से अलग रखना समानता के अधिकार के विपरीत है। उनका यह भी तर्क है कि देश की रक्षा एक ट्रांसजेंडर ज्यादा बेहतर और पूरी निष्ठा के साथ कर सकता है, क्योंकि उसका कोई आगा-पीछा नहीं होता। यानी वह पूरी तरह कर्तव्य को समर्पित रह सकता है। अगर लड़ाकूपन और क्रूरता की बात की जाए तो भारत के इतिहास में 14 वीं सदी में सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर का नाम आता है। कहते हैं कि मलिक मूलत: हिंदू था, लेकिन उसे गुलाम के रूप में  खरीदकर मुसलमान बना लिया गया था। मलिक हिजड़ा था और अपने मालिक की मंशा पूरी करने उसे दक्षिण भारत के लगभग सभी हिंदू राज्यों को तबाह कर ‍िदया था। मुगलों के जमाने में हरम की रक्षा का काम ख्वाजसराअों के जिम्मे होता था। उस जमाने में कई किन्नर बहुत अच्‍छी हालत में थे। लेकिन ब्रिटिश राज में किन्नरों के पास जीवनयापन का एक ही तरीका बचा, वो था तालियां बजाकर नाचने गाने और जबरिया नेग मांगकर अपनी जिंदगी बसर करना। कई जगह किन्नर जबरिया वसूली भी करते हैं। वसूली के लिए इलाकों के बंटवारे को लेकर उनमें खूनी संघर्ष भी होने लगा है। किन्नरों में उच्च शिक्षित कम ही हैं। वस्तुत: उनकी जिंदगी एक बंद दरवाजे के मकान-सी है,जिसमें बाहर का कोई व्यक्ति झांकना नहीं चाहता। अलबत्ता पिछले कुछ सालों से किन्नरों को मुख्‍यधारा में लाने के प्रयास चल रहे हैं। उन पर फिल्में भी बन रही हैं। किन्नरों की उद्दंडता और विवशता को तीसरी आंख से देखने की कोशिश हो रही है। कुछ किन्नर हैं, जो अपने प्राकृतिक अभिशाप को कलंक की तरह ढोते हुए जिंदगी गुजारना नहीं चाहते। सुरक्षा बलों और सेना में उनकी भर्ती यकीनन नई बहस और नए क्षितिज के द्वार खोलेगी। सबसे पहले तो हमे ट्रांसजेंडरों के प्रति अपना मानस बदलना पड़ेगा। उन लोकोक्तियों और कटाक्षों को भी हटाना होगा, जिसमें हिजड़ा का भावार्थ ‘नामर्द’ से है। वैसे भी अब जब महिलाएं देश की सरहदों पर मोर्चे संभाल रही हैं, तब ‘नामर्द’ जैसी संज्ञाअों को शब्दकोश से डिलीट करना या फिर उसे एक निश्चित दायरे में समेटने की दरकार है। किन्नर सुरक्षा कार्य कितनी सक्षमता के साथ करेंगे, कर पाएंगे, इन सवालों के जवाब तो उनकी नियुक्तियों के बाद ही ‍िमलेंगे। युद्ध के मोर्चों पर किन्नर कितने सफल होंगे, यह भी देखने की बात है, लेकिन यह भी कड़वी सचाई है कि संघर्ष किन्नरों के जीवन का अभिन्न हिस्सा है, जो उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक चलता रहता है। किन्नर मरने के बाद एक दूसरे को श्रद्धांजलि नहीं देते। वो अपनों के शवों की ‘पूजा’चप्पलों से करते हैं ताकि अगले जन्म में कोई किन्नर न बने। हो सकता है कि सरहद और समाज में किसी किन्नर की शौर्य गाथा इस मान्यता को बदलने पर मजबूर करे कि किन्नर होना कुदरत का अभिशाप भर नहीं है।
अजय बोकिल,लेखक                                                     ये लेखक के अपने विचार है I
वरिष्ठ संपादक


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