जब तोक्यो अोलम्पिक में हमारी महिला खिलाड़ी मेडल जीत रही थीं, तब भारत में एक दूसरा अोलम्पिक चल रहा था और यह था विजेता खिलाडि़यों की जाति तलाशने का। लोगों में होड़ सी मची थी कौन कितना और किस एंगल से गूगल करके जातियों के महासागर से पीवी सिंधु और लवलीना बोरगोहेन की जाति का मोती खोज लाता है। रियो अोलिम्पिक के समय भी महिला बेडमिंटन की सिल्वर विजेता पी.वी. सिंधु और कांस्य पदक विजेता महिला पहलवान साक्षी मलिक की लोग जाति ढूंढ रहे थे। गोया उनकी जाति का खुलासा अगर न हुआ तो अोलिम्पिक में उनका किया कराया सब बेकार है। उनकी वैश्विक उपलब्धि पर अगर जाति का ठप्पा न लगा तो वो निरर्थक और निष्प्रभ है। फर्क इतना है कि कहीं वो बिल्कुल नग्न रूप में है तो कहीं दबे ढंके रूप में। इस सोच से पता चलता है कि समाज में जातीय समता की बातें हम लाख करें, लेकिन हकीकत में जाति के साथ जन्मने, जीने और मरने के लिए अभिशप्त हम भारतीयों (विशेषकर हिंदू) के लिए जात से बढ़कर कुछ भी नहीं है। न खिलाड़ी का मेडल, न सैनिक की शहादत, न वैज्ञानिक की खोज, न किसान की काश्तकारी और न ही इंसानियत की बुलंदी।
अपनी हाड़ तोड़ मेहनत और खून-पसीना एक कर अोलिम्पिक जैसी महाकठिन प्रतिस्पर्द्धा में मेडल लाकर देश का सिर ऊंचा करने वाली इन खिलाडि़यों ने उनकी कामयाबी को जाति के आईने में परखने वाले देश की इस मानसिकता को किस रूप में लिया होगा, कहना मुश्किल है। इस बार भी तोक्यो अोलिम्पिक के दौरान एक तरफ कई लोग गूगल पर भारतीय महिला खिलाडि़यों की जाति कन्फर्म करने में अपनी ऊर्जा खर्च कर रहे थे तो दूसरी तरफ बहुत से लोग उनके इस ‘नीच कर्म’ के लिए ट्विटर पर उन्हें खरी-खोटी सुना रहे थे। गूगल पर कब-कौन से शब्द ढूंढे जा रहे हैं, इसकी जानकारी ट्रेंड्स डाॅट गूगल डाॅट काॅम पर मिलती है। 1 अगस्त को जैसे ही सिंधु ने कांस्य पदक जीता, वैसे ही -पीवी सिंधु कास्ट- पूरे दिन में सबसे ज्यादा ढूंढा जाने वाला कीवर्ड बन गया। यानी इन लोगों की रूचि इस बात में नहीं थी कि सिंधु ने अपने विनिंग मैच में किसे, कितने प्वाइंट्स से हराया, उसका खेल कैसा था, जीत के पीछे क्या तैयारी थी बल्कि इस बात में ज्यादा था कि दूसरी बार लगातार अोलिम्पिक मेडल लाने वाली इस शटल बाला की जाति क्या है? सिंधु की जाति ढूंढने वालों में सबसे ज्यादा लोग आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, बिहार और गुजरात के बताए जाते हैं। वैसे सिंधु के साथ यह हरकत तो 2016 से हो रही है, जब उसने रियो अोलिम्पिक में महिला एकल बेडमिंटन में रजत पदक जीता था। तब से जातिशोधक थके नहीं है। इस बार तो यह आंकड़ा 90 फीसदी तक पहुंच गया। यानी यह सर्च टाॅप ट्रेंड में रही। इसका कारण शायद यह भी है कि पी.वी. सिंधु के नाम से किसी जाति विशेष का बोध नहीं होता सिवाय एक महिला होने के। बाक्सिंग में देश को कांस्य पदक दिलाने वाली लवलीना बोरगोहेन की तो जाति के साथ-साथ ‘धर्म की तलाशी’ भी ली गई। गोया वो किसी धर्म विशेष की सिद्ध होने पर ही उसकी कामयाबी को मान्य िकया जाता। मशहूर बेडमिंटन िखलाड़ी और भारतीय बेडमिंटन टीम के चीफ कोच पी.गोपीचंद ने जब िखलाडि़यों की मानसिक मजबूती के लिए जब ‘ध्यान सत्र’ शुरू किया तो तेलंगाना के लोग उनकी भी जाति खोजने लगे। जानी-मानी तीरंदाज दीपिका कुमारी की जाति को तो लोग इस देश में दस साल से खोज रहे हैं। कुछ ऐसा ही हाल क्रिकेटर संजू सैमसन के साथ भी हुआ है।
मकसद ये कि जाति साधु की भले न पूछो, मगर खिलाड़ी की हर हाल में पूछो। अफसोस की बात तो यह है कि देश की शान खिलाडि़यों का यह जातिखोजी वर्ग मुख्य रूप से शहरी ही है। ये वो लोग हैं कि जो जाति को जिंदा रखने में ही अपनी जीविता देखते हैं। क्योंकि अल्प शिक्षित या अशिक्षित अथवा पेट के लिए जीने वालों के पास इतनी फुर्सत ही नहीं है कि वो किसी की जाति जानकर उसकी कामयाबी की तस्दीक करें।
इस देश का यह दुर्भाग्य ही है कि जितना जाति को पीछे ठेलने की कोशिश होती है, वो राजनीति के कंधों पर, नए रूपों में और ज्यादा ताकतवर तथा खुद को प्रासंगिक बनाते आगे बढ़ती है। लोकतंत्र की जमीन पर हम ही उसे सींच रहे होते हैं। इस सोच का अगला कदम यह हो सकता है कि देश में हर काम, उद्देश्य, कार्य प्रणाली और कामयाबी भी जाति के पैमाने से ही नापी जाए। न सिर्फ नापी जाए बल्कि उसकी सार्थकता भी जातियों के प्रतिनिधित्व व भागीदारी से ही तय हो। यानी अगर अपेक्षित जातीय प्रतिनिधित्व नहीं है तो अोलिम्पिक का गोल्ड मेडल भी कूड़ा है। वो दिन ज्यादा दूर नहीं, जब भारतीय क्रिकेट या हाॅकी टीम अथवा अोलिम्पिक खिलाडि़यों का चयन भी देश में जातीय आरक्षण के हिसाब से करने की मांग उठे। वहां जीतना अहम नहीं होगा, टीम में जाति की शुमारी अहम होगी।
यह संभावना इसलिए है भी कि देश में जाति व्यवस्था खत्म करने वाले तमाम आंदोलनो और विचारों की ट्रेजिडी अब खुलकर जाति बताने और उसे पोषित करने में समाहित हो गई है। यह भी मुमकिन है कि मेडलों का रंग और औचित्य भी जाति के हिसाब से ही तय हो। यही कारण है कि मोदी सरकार पर सबसे ज्यादा दबाव देश में जाति जनगणना कराने तथा उसके आंकड़े जारी करने का है ताकि सत्ता के अोलिम्पिक का गोल्ड मेडल अपने नाम रिजर्व किया जा सके। लिहाजा बिहार में एक दूसरे के राजनीतिक विरोधी नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव इस मुद्दे पर एक हो गए हैं। उधर मोदी सरकार जातिगणना में भले आना कानी कर रही हो, लेकिन वह खुद भी यही चाहती है। ऐसा पहली बार हुआ, जब पिछले मोदी मंत्रिमंडल विस्तार की खूबी उसकी जातीय नुमाइंदगी को बताया गया। देश को किसी सरकार ने घोषित रूप से बताया कि इस मिनिस्ट्री में कितने पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधि हैं। दूसरे शब्दों में यह पिछड़ों का मंत्रिमंडल है न कि समूचे देश का, ताकि इस वर्ग के लोग गांठ बांध लें कि न केवल प्रधानमंत्री बल्कि उनके मंत्रिमंडल के अधिकांश सदस्य भी इसी वर्ग के नुमाइंदे हैं। यानी एक तरफ जातीय समता और समरसता का सुंदरकांड और दूसरी तरफ जातीयता की पीठ थपथपाने वाली आल्हा का बुलंद पाठ।
अब सवाल यह कि हम आखिर चाहते क्या हैं? सरकारी नौकरियों, उच्च शिक्षा और राजनीति में आरक्षण का सीमित औचित्य है, लेकिन खेल की टीमें भी अगर इसी आधार पर बनने लगीं तो देश खेलो की दुनिया में कहां जा पहुंचेगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। यानी ‘खेल’ को ‘खेला’ में तब्दील करने की आत्मघाती सोच। वैसे इस बात में सचाई है कि कुछ समय पूर्व तक खेलो में अगड़े वर्ग की भागीदारी ज्यादा दिखाई पड़ती थी। जबकि खेल ही क्यों अन्य गुणी प्रतिभाएं न तो किसी जाति की बपौती है और न ही उसकी मोहताज होती हैं। प्रतिभा, प्रतिभा होती है उसे खिलने के लिए सही धूप और आंगन चाहिए। पिछले कुछ समय से खेल जगत की तस्वीर काफी बदली है। पिछड़े, दलित और आदिवासी वर्ग से अच्छी खेल प्रतिभाएं आगे आ रही हैं। मेडल भी जीत रही हैं। इसका ताजा उदाहरण हमारी महिला हाॅकी टीम है, जिसमें 90 फीसदी खिलाड़ी ऐसी हैं, जो कमजोर तबके से आई हैं और अपनी काबिलियत से देश का नाम रोशन कर रही हैं। जाति गणना और आंकड़ों के अनुपात में सत्ता में भागीदारी का तर्क अपनी सत्ता स्वार्थ के हिसाब से ठीक हो सकता है, लेकिन खेल में विजय की मानवीय आकांक्षा, अडिग संकल्प, समर्पण और हर हाल में जीतने की जिद केवल और केवल अथक परिश्रम, अनुशासन और अटल इच्छाशक्ति पर ही टिकी होती है। वहां गोरा-काला, गरीब-अमीर, औरत-मर्द, अगड़ा-पिछड़ा, दुबला-पतला होना कोई मायने नहीं रखता। वहां संसाधनों की कमी या सामाजिक-आर्थिक विवशताएं भी कोई छूट नहीं देती। वह केवल यही संदेश देती है कि जीत के लिए मरना भी पड़े तो पीछे मत हटना। इसलिए हमारे जो खिलाड़ी बेहद कठिन प्रतिस्पर्द्धा में भी मेडल लेकर आ रहे हैं, उनकी पहचान एक प्रतिभा सम्पन्न ‘खिलाडी’ के रूप में ही कीजिए। उनका सम्मान एक जुझारू स्पोर्ट्समैन के तौर पर कीजिए। उनकी खेल उपलब्धियां किसी जाति िवशेष की गौरव पताका नहीं हैं। वो तो समूचे देश और हमारी विरासत का कीर्ति ध्वज है।
अजय बोकिल, लेखक
वरिष्ठ संपादक, ‘राइट क्लिक’ ये लेखक के अपने विचार है I
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