इस दौर में काश हम घर में पड़े रहने के बजाय गांव में खेती-बाड़ी करते होते हैं हमारा भी शरीर मजबूत होता और भरपूर प्रतिरोधक क्षमता हमारी भी होती। खैर इस दौर ने हमें यह तो सिखा दिया कि अब भविष्य में हमें प्रकृति के बीच रहना सीखना होगा, शहरो के भौतिक दौर में जीते जीते हम इतने कच्चे हो गए कि 25 - 50 कदम भी चलते हैं तो थक जाते हैं। एक मोहल्ले से पास के मोहल्ले में जाने के लिए हमें गाड़ी की जरूरत पड़ती है। ना कोई शारीरिक एक्सरसाइज ना कोई पसीना बहाने वाली मेहनत। सिर्फ खाने के शौकीन और भौतिक जीवन के आदी। काश कार मोटरसाइकिल स्कूटर साइकिल नहीं बने होते तो हम पैदल तो चलते मेहनती तो बने होते। पहले घर के कामकाज के दौरान ही हमारी अच्छी खासी एक्सरसाइज हो जाती थी। गांव में खेत खलियान से शुद्ध साग सब्जी फल फूल और खाद्धान का खानपान होता है। शहरों में पैक्ड फूड की आदत हो जाती है यहां तक कि मसाले भी हम पीसे पीसाए पैकिंग वाले मिलते हैं। पहले तो घर में ही मसाले पीसने थे और नमकीन मीठा सब घर में ही बनता था और वही खाते थे। पहले हम कुएं से पानी खींचते थे। तालाब, कुएं या छतों पर नहाते वही कपड़े धोना और सुखाना जीवन का एक अलग ही आनंद रहा। आज लाॅक डाउन मे हमें उन दिनों की याद दिलादी और वापस उस जमाने के दौर में जीने का अब मन करने लगा।
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