नई दिल्ली । बांबे हाईकोर्ट ने माना कि किसी हिंदू महिला या पुरुष द्वारा उसके तलाक के फैसले के खिलाफ की गई अपील के दौरान अगर दूसरा विवाह किया जाता है तो वह गैर-कानूनी तो है लेकिन उसे अमान्य घोषित नहीं किया जा सकता है, इसके साथ ही इस कृत्य को अदालत की अवमानना भी नहीं माना जा सकता है।
न्यायमूर्ति अनिल किलोर ने पिछले हफ्ते कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 15 में तलाक का फैसला आने के बाद उसके खिलाफ दायर की गई अपील अगर खारिज कर देने की स्थिति में ही दूसरी शादी की अनुमित दी जाती है, चूंकि अधिनियम में प्रावधान का उल्लंघन करने पर कोई परिणाम नहीं दिया गया है इसलिए ऐसी शादी को अमान्य भी नहीं कहा जा सकता।
35 साल की महिला द्वारा दायर की गई याचिका को खारिज करते हुए न्यायमूर्ति अनिल किलोर ने कहा यह स्पष्ट है कि धारा 15 के उल्लंघन में किए गए विवाह का कोई परिणाम नहीं दिया गया है, यह नहीं कहा जा सकता है कि इस तरह की शादी अमान्य हो जाएगी। न्यायाधीश ने उनके इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि महिला के 40 साल के पति को पारित तलाक को चुनौती देने के दौरान दूसरी शादी कर लेने के लिए 'अदालत की अवमानना' के लिए दंडित किया जाना चाहिए।
इस जोड़े ने दिसंबर 2003 में शादी की थी लेकिन उनके बीच चीज़ें सही नहीं हुई तो महिला ने अपने पति को छोड़ दिया। पति ने ने परित्याग के आधार पर तलाक के लिए अर्जी दी, लेकिन संयुक्त सिविल जज सीनियर डिवीजन ने अक्टूबर 2009 में उसकी तलाक की याचिका खारिज कर दी। जिला न्यायाधीश ने हालांकि पति की अपील को 25 नवंबर, 2015 को अनुमति दे दी और तलाक देकर उनकी शादी को खारिज कर दिया। इसके बाद महिला ने हाईकोर्ट में अपील दायर की लेकिन उनकी अपील के लंबित रहने के दौरान ही पति ने 20 मार्च 2016 को दोबारा शादी कर ली।
महिला ने दलील दी कि कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट एक्ट, 1971 के तहत, निर्णय, आदेशों, निर्देशों और 'कोर्ट की अन्य प्रक्रिया' की घोर अवमानना और नागरिक अवमानना के रूप में ये कृत्य दंडनीय है और चूंकि हिंदू मैथ्यू अधिनियम के तहत उन्हें अपील का अधिकार है। तो ऐसे में एक अदालत उनके पति को नागरिक अवमानना के लिए दंडित करे। न्यायमीर्ति अनिल किलोर ने इस तर्क को यह कहकर खारिज कर दिया कि जिस 'घोर अवज्ञा' का जिक्र महिला ने किया वो न्यायालय द्वारा जारी किए गए किसी आदेश से संबंधित होना चाहिए।
न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि इन चरणों के दौरान विभिन्न आदेश को अदालत द्वारा जारी करने की जरूरत होती है जैसे सम्मन जारी करना, लागत जमा करना, किसी विशेषज्ञ या व्यक्ति को गवाह के रूप में उपस्थिति, दस्तावेजों या रिकॉर्ड आदि का उत्पादन और किसी भी तरह की अवज्ञा करना। ऐसे आदेश 'अदालत की अन्य प्रक्रिया' के दायरे में आ सकते हैं। लेकिन किसी भी प्रकार की कल्पना से यह नहीं कहा जा सकता है कि धारा 15 के प्रावधान का उल्लंघन करने पर न्यायालय के अधिनियम, 1971 के तहत चिंतन के अनुसार, 'न्यायालय की अन्य प्रक्रिया' की विलम्बित अवज्ञा होगी।