Select Date:

बिहार में कंधा बदल: क्या यह मोदी बनाम नीतीश की कच्ची पटकथा है ?

Updated on 11-08-2022 04:53 PM

अजय बोकिल 

बिहार में मुख्यपमंत्री नीतीश कुमार द्वारा तीसरी बार पाला बदलने और 17 साल में छठी बार सीएम पद की शपथ लेने के पैंतरे को राजनीतिक प्रेक्षक अलग अलग नजरिए से देखने समझने की कोशिश कर रहे हैं। लालू प्रसाद यादव के जिस ‘जंगल राज’ के खिलाफ उन्होंने भाजपा से हाथ मिलाकर लड़ाई लड़ी, उन्हीं लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के साथ दूसरी बार सरकार बनाकर वो बिहार में ‘मंगल राज’ लाने की बात कह रहे हैं। इस मायने में नीतीश ‘पलटूराम पालिटिक्स’ के यकीनन बाजीगर हैं। लेकिन बात केवल अपनी सत्ता की पालकी का कंधा बदलने तक सीमित नहीं है। कहा जा रहा है कि नीतीश अब राष्ट्रीय फलक पर किस्मत आजमाना चाहते हैं, वो उस आसमान में उड़ना चाहते हैं, जिसे उन्होंने बिहार में 2015 में भाजपा के कंधे पर बैठकर सरकार बनाकर गंवा दिया था। वरना 2013 में जिन नरेन्द्र मोदी को ‘साम्प्रदायिक’ बताकर नीतीश ने साम्प्रदायिक राजनीति के खिलाफ मोर्चा खोला था और जिसके कारण उन्हें विपक्ष का सर्वसम्मत चेहरा माना जाने लगा था, उन्हीं मोदी का नेतृत्व स्वीकार कर एक नैतिक लड़ाई वो हार गए थे। अब सात साल बाद नी‍तीश फिर उसी अखाड़े में खम ठोंकने की तैयारी में हैं। भले ही वो ऊपर से ना करते रहें, लेकिन भीतरी तमन्ना वही है। यहां सवाल यह है ‍कि यदि सचमुच नीतीश 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी नेता के रूप में प्रोजेक्ट हुए तो क्या वो मोदी और भाजपा को सत्ता से बाहर कर पाएंगे? क्या इतनी ताकत, आभामंडल  और जनअपील उनके पास है? क्या यह समूचा घटनाक्रम 2024 के लोकसभा चुनाव में खेले जाने वाले मोदी बनाम नीतीश कुमार नाटक की कच्ची पटकथा है?  
तथ्यों और तर्कों के आईने में देखें तो ऐसा कर पाना असंभव नहीं तो बहुत मुश्किल जरूर है। यहां लोकसभा चुनाव की बात इसलिए क्योंकि भाजपा के लिए  बिहार का विधानसभा चुनाव जीतने से ज्यादा अहम वहां लोकसभा की ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना है। बिहार में 40 लोकसभा सीटें हैं। विजयी सीटों की संख्या के ‍िहसाब से देखें तो जब नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) 2014 में कांग्रेस नीत यूपीए का हिस्सा थी, उस वक्त भाजपा ने 40 में से 22 सीटें जीती थीं। उसका वोट शेयर 29.40 फीसदी था। तब भाजपानीत एनडीए में लोक जनशक्ति पार्टी और उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी भी शामिल थी ( अब यह पार्टी जेडीयू में शामिल हो गई है)। और इन दोनो पार्टियों ने भी क्रमश: 6 और 3 सीटें जीती थी। तीनो पार्टियों को अगर मिला लिया जाए यह वोट शेयर 38 फीसदी होता है। दूसरी तरफ आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस यूपीए के सहयोगी के रूप में लड़े थे। उन्हें क्रमश: 4 और 2, 2 सीटें मिली थीं। एक सीट राष्ट्रवादी कांग्रेस ने जीती थी। इस सबका वोट शेयर 44 फीसदी होता है। यानी कुल वोट ज्यादा मिलने के बाद भी सीटें एनडीए ने चार गुना ज्यादा जीतीं। तब भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार थे। एनडीए की जीत को मोदी लहर के रूप में पारिभाषित किया गया। 
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और जदयू साथ थे। इनके अलावा एनडीए में रामविलास पासवान की लोक जनशक्तिपार्टी भी थी। इस गठबंधन ने बिहार में विपक्ष का लगभग सफाया कर दिया था। तीनो ने कुल 39 सीटें जीत लीं। केवल एक सीट कांग्रेस को मिली। तीनो का सम्मिलित वोट शेयर 52.45 फीसदी रहा। जबकि राजद 15 फीसदी वोट लेकर भी कोई सीट नहीं जीत पाई। हालांकि सीटों और वोट शेयर के हिसाब से भाजपा को घाटा ही हुआ। उसकी पांच सीटें कम हो गईं और वोट शेयर भी 6 फीसदी घट गया। इस चुनाव की जीत भी मोदी लहर का नतीजा ही मानी गई। 
अब 2024 में भाजपा अपने दम पर लड़ी तो उसे कितनी सीटें मिलेंगी, यह देखने की बात है। एनडीए में भी उसके साथ लोजपा ही रह सकती है। ऐसे में जीती हुई सीटो का आंकड़ा 20 तक पहुंचाना भी आसान नहीं है, केवल उस स्थिति को छोड़कर कि जब मोदी और भाजपा के पक्ष में कोई सुनामी चल जाए। देश के अंदरूनी हालात इसकी गवाही नहीं देते। भाजपा की चिंता यह है ‍कि बिहार से होने वाले घाटे की पूर्ति कहां से की जाए। बंगाल में तो अब 2019 का परिणाम दोहराना भी मुश्किल है। बाकी हिंदी पट्टी में वो अधिकतम सीटें जीत ही रही है। इसमें और इजाफे की गुंजाइश नहीं है। पूर्वोत्तर में सीटें ही बहुत कम हैं। दूसरी समस्या यह है कि भाजपानीत एनडीए से तीन बड़े सहयोगी दलों के बाहर जाने के बाद गठबंधन में कहने को 18 दल बचे हैं, लेकिन इन शेष दलों की राजनीतिक हैसियत गौण है। इसलिए एनडीए व्यवहार में अब केवल भाजपा ही है। 
तो क्या भाजपा और मोदी के लिए 2024 का चुनाव बिहार के ताजा घटनाक्रम के बाद ज्यादा कठिन होने वाला है? इसमें शक नहीं कि आज मोदी देश में लोकप्रियता के अपने सर्वोच्च शिखर पर हैं। अगले चुनाव में भी उनके नाम पर ही वोट पड़ेंगे। उसकी तुलना में नीतीश की लोकप्रियता का दायरा बिहार तक सीमित है। जहां तक जन नेता होने की बात है तो नीतीश लोकसभा तो दूर बिहार विधानसभा का चुनाव भी कभी अपने दम पर नहीं जीत सके हैं। हर वक्त उन्हें कोई न कोई सहारा चाहिए होता है। ऐसे में विपक्ष ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें प्रोजेक्ट कर भी ‍िदया तो वो अपने दम पर कितने वोट खींच पाएंगे,यह बड़ा सवाल है। यूं नीतीश ने अपनी छवि समन्वयवादी जरूर बना रखी है, लेकिन वो कोई धुरंधर वक्ता भी नहीं हैं। बिहार के बाहर उन्हें लोग कितना स्वीकार करेंगे, कहना मुश्किल है। 
तो फिर वो यह बात किस भरोसे से कह रहे हैं जो 2014 में आए, वो 2024 में न आ पाएं। यह केवल उनका सपना है या हकीकत का पूर्वाभास? ऐसा केवल एक ही स्थिति में संभव है कि देश का समूचा विपक्ष अपने मतभेदों और अहम को भुलाकर लोकसभा चुनाव में एक हो जाए, उनमें सीट शेयरिंग भी सहजता हो जाए, देश तथा लोकतंत्र को बचाने का एकमात्र एजेंडा बन जाए और जनता के गले यह बात उतारने में कामयाबी मिल जाए कि मोदी-शाह के नेतृत्व में देश सुरक्षित नहीं है, तब ही बड़ी सफलता की उम्मीद है। इस तर्क में दम इसलिए भी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा ने 303 सीटें जीत कर अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था, तब भी उसे 37.36 प्रतिशत वोट ही मिले थे, यानी बाकी 62.64 फीसदी वोट विपक्षी दलों में बंट गए थे। अगर विपक्षी वोट नहीं बंटे तो भाजपा को सत्ता में आने के लिए अपना वोट प्रतिशत 50 प्रतिशत तक ले जाना होगा। यह आसान नहीं है। हालांकि यह कागजी गणित है। व्यवहार में ऐसा ही हो जरूरी नहीं है। 
इस देश में विपक्षी एकता का एक महाप्रयोग इमर्जेंसी के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में हुआ था, जब तकरीबन समूचा विपक्ष एक हो गया था और तबकी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस और श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव में वन-टू- वन लड़ाई हुई थी। उसमें कांग्रेस पश्चिमोत्तर भारत में साफ हो गई थी। फिर भी दक्षिण में वो पूरी ताकत से जिंदा रही थी। यानी देश का मन तब भी विभाजित था। आने वाले चुनाव में विपक्ष भी नीतीश के नेतृत्व में अपने वजूद को बचाने एक हो सकता है, लेकिन भाजपा के खिलाफ वन-टू-वन मुकाबला बनाने के लिए राजनीतिक जिगरा और त्याग चाहिए। अभी तो यह भी तय नहीं है कि विपक्ष में नेतृत्व का ध्वजदंड किसके हाथ में होगा। राहुल गांधी, नी‍तीश कुमार या ममता बनर्जी या फिर और कोई। 
जहां तक गठबंधन राजनीति की बात है तो भाजपा अब उस दौर में पहुंच गई हैं, जहां कभी कांग्रेस हुआ करती थी। वह अब सत्ता में शेयरिंग नहीं चाहती। इसके फायदे और नुकसान दोनो हैं। भाजपा यह चाहे कि देश का हर दल और हर व्यक्ति और दल राष्ट्रवादी हो जाए और उसी की तरह सोचने लगे तो यह संभव नहीं है। लेकिन विपक्षी दल अपने राजनीतिक आग्रहों और सुविधा के अनुसार कट्टी-बट्टी करते रहें तो इससे भी उन्हें कुछ ज्यादा हासिल नहीं होने वाला। जाहिर है कि राष्ट्रीय फलक पर नीतीश के लिए चमकना बेहद कठिन है। अगर वो प्रधानमंत्री बन सके तो यह चमत्कार ही होगा। 
जहां तक बिहार की बात है तो भाजपा वहां अब लगभग अकेली है। अपनी ताकत बढ़ाने के लिए वो अब साम्प्रदायिक कार्ड खुलकर खेलेगी। हालांकि बिहार में इस कार्ड का चलना कठिन इसलिए है, क्योंकि बिहार का राजनीतिक चरित्र अलग तरह का है, ठीक वैसे ही कि जैसे बंगाल का है। बिहार में राष्ट्रीय मुद्दे भी जातिवाद के रैपर में ही चलते हैं। जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता के आग्रह के आगे राष्ट्रवाद और हिंदू एकतावाद पानी भरने लगता है। दरअसल‍ बिहार में सत्ता पार्टी या व्यक्ति के हाथ में नहीं आती, परोक्ष रूप से वह जाति या जातियों के हाथों में आती है। इस जातीय गोलबंदी को तोड़ना भाजपा के लिए अभी भी आसान नहीं है, क्योंकि उसके पास राज्य में नीतीश के कद का कोई नेता भी नहीं है। ऐसा नेता तैयार करने में भी वक्त लगेगा।  
कुछ नीतीश कुमार के ताजा फैसले को देश में  विपक्ष के पुनर्जन्म के रूप में देख रहे हैं। यह अति आशावाद भी हो सकता है। भाजपा गठबंधन में अपनी सहयोगी पार्टियों की जड़े खोदने का काम करती है, यह आरोप सही हो तो भी भाजपा और आरएसएस एक साथ कई मोर्चों पर काम करते हैं, यह भी समझना होगा। सारी विपक्षी पार्टियां अपने राजनीतिक हितों को दांव पर लगाकर नीतीश के पीछे बिना शर्त खड़ी हो जाएं, तो भी यह काफी मुश्किल है। यह तभी संभव है जब देश की बहुसंख्यक जनता मोदी-शाह की रणनीति और भाजपा की राजनीति से ऊब जाए। इसके कोई आसार अभी तो नहीं दिख रहे। अलबत्ता नीतीश का यूपीए में लौटना अल्पसंख्यक वोटों में राहत का सबब जरूर होगा। 
यूं नीतीश कुमार के लिए भी अब बिहार में सात पहियों वाली सरकार चलाना आसान नहीं होगा। क्योंकि महाराष्ट्र में तीन पहियों वाली सरकार ही ढाई साल मुश्किल से चल पाई। क्योंकि नीतीश समाजवादी भले हों, लेकिन राजनीतिक त्यागी पुरूष कदापि नहीं है। उनका मन कब किस से ऊब जाए, कहा नहीं जा सकता। मोदी के खिलाफ भी वो उसी स्थिति में खम ठोकेंगे, जब उन्हे पक्का यकीन हो जाएगा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी उनका ही इंतजार कर रही है, वरना पटना में मुख्यमंत्री की धुनी रमी हुई है ही, वक्त जरूरत के हिसाब से कंधा बदलने में कोई दिक्कत नहीं है न नैतिक और न ही राजनीतिक। 
अजय बोकिल,लेखक, वरिष्ठ संपाद,‘राइट क्लिक’


अन्य महत्वपुर्ण खबरें

 16 November 2024
महाराष्ट्र में भाजपानीत महायुति और कांग्रेसनीत महाविकास आघाडी के लिए इस बार का विधानसभा चुनाव जीतना राजनीतिक  जीवन मरण का प्रश्न बन गया है। भाजपा ने शुरू में यूपी के…
 07 November 2024
एक ही साल में यह तीसरी बार है, जब भारत निर्वाचन आयोग ने मतदान और मतगणना की तारीखें चुनाव कार्यक्रम घोषित हो जाने के बाद बदली हैं। एक बार मतगणना…
 05 November 2024
लोकसभा विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित हो चुके हैं।अमरवाड़ा उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी कमलेश शाह को विजयश्री का आशीर्वाद जनता ने दिया है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 29 की 29 …
 05 November 2024
चिंताजनक पक्ष यह है कि डिजिटल अरेस्ट का शिकार ज्यादातर वो लोग हो रहे हैं, जो बुजुर्ग हैं और आमतौर पर कानून और व्यवस्था का सम्मान करने वाले हैं। ये…
 04 November 2024
छत्तीसगढ़ के नीति निर्धारकों को दो कारकों पर विशेष ध्यान रखना पड़ता है एक तो यहां की आदिवासी बहुल आबादी और दूसरी यहां की कृषि प्रधान अर्थव्यस्था। राज्य की नीतियां…
 03 November 2024
भाजपा के राष्ट्रव्यापी संगठन पर्व सदस्यता अभियान में सदस्य संख्या दस करोड़ से अधिक हो गई है।पूर्व की 18 करोड़ की सदस्य संख्या में दस करोड़ नए सदस्य जोड़ने का…
 01 November 2024
छत्तीसगढ़ राज्य ने सरकार की योजनाओं और कार्यों को पारदर्शी और कुशल बनाने के लिए डिजिटल तकनीक को अपना प्रमुख साधन बनाया है। जनता की सुविधाओं को ध्यान में रखते…
 01 November 2024
संत कंवर रामजी का जन्म 13 अप्रैल सन् 1885 ईस्वी को बैसाखी के दिन सिंध प्रांत में सक्खर जिले के मीरपुर माथेलो तहसील के जरवार ग्राम में हुआ था। उनके…
 22 October 2024
वर्तमान समय में टूटते बिखरते समाज को पुनः संगठित करने के लिये जरूरत है उर्मिला जैसी आत्मबल और चारित्रिक गुणों से भरपूर महिलाओं की जो समाज को एकजुट रख राष्ट्र…
Advertisement