संघ प्रमुख मोहन भागवत के कथन पर किसी भी किस्म की शंका या असहमति समझ से परे है। भागवत ने कहा कि सभी भारतीयों का डीएनए एक ही है। वह यह भी बोले कि यदि कोई किसी को देश छोड़ने की सलाह देता है तो फिर वह हिंदू नहीं हो सकता। क्या इन बातों में किसी मीन मेख निकालने या राजनीति करने की चेष्टा करना चाहिए? लेकिन ऐसा हो रहा है। 'तुम सौ करोड़ पर हम बीस करोड़ भारी' की थ्योरी के जनक असदुद्दीन ओवैसी इस बयान से बिलबिला गए हैं। चैट हाउस के नाम पर देश-विरोधी प्रपंच रचने वाले दिग्विजय सिंह भी भागवत के कहे पर सवाल उठा रहे हैं।
संघ तो लंबे समय से सामाजिक समरसता का अभियान चला ही रहा है। हां, ओवैसी और दिग्विजय जैसे समान विचारधारा वाले तत्व ऐसे किसी भी प्रयास से इत्तेफाक नहीं रखते। वे मुस्लिम समुदाय को हिन्दुओं से डरा कर अपनी राजनीति चमकाने में यकीन रखते हैं। उन्हें पता है कि यदि संघ प्रमुख के कथन में छिपे सत्य को स्वीकार्यता मिल गयी तो उन दोनों की दुकानें बंद हो जाएंगी। इसलिए वे अपनी-अपनी सोच की सीमित हैसियत और विचारधारा की पूरी भयावहता के साथ भागवत की बात को गलत साबित करने के अभियान में एक बार फिर जुट गए हैं।
संघ ने कभी भी नहीं कहा कि मुसलमानों को देश छोड़ देना चाहिए। न भाजपा में ऐसी राय रही है। ये बात केवल उन लोगों के लिए कही गयी, जो इस देश के कानून और संविधान के दायरे में रहने में अपनी तौहीन समझते हैं। फिर उनमें चाहे हिन्दू भी क्यों न शामिल हों। कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती इसलिए विरोध का कारण नहीं बनीं, कि वह मुस्लिम हैं, बल्कि इसकी वजह उनका हर सूरत में तिरंगे को न अपनाने वाला दुराग्रह बना है। ओवैसी पर भी कट्टरपंथ वाली छाप उनके किसी समुदाय विशेष का होने से नहीं लगी। ऐसा उनके सपरिवार वाले देश-विरोधी बयानों के चलते हुआ है। देश में भाजपा की सरकारों के समय भारत के सपूत डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति बनाये गए। नजमा हेपतुल्ला को राज्यपाल की जिम्मेदारी दी गयी। दिवंगत सुषमा स्वराज ने विदेश मंत्री रहते हुए जितने पाकिस्तानी लोगों की मदद की, उतनी उससे पहले वाली तमाम सरकारों में शायद कुल मिलाकर भी नहीं की गयी होगी। और पीछे जाएंगे तो याद करें, 1977 में जनता पार्टी की सरकार के विदेश मंत्री अटलिबहारी वाजपेयी को। उन्होंने केन्द्र में पहली बार मंत्री पद का दायित्व संभालते हुए पाकिस्तान से संबंधों को सुधारने को प्राथमिकता दी। गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री रहते हुए भी उन्होंने पाकिस्तान से संबंध सुधारने की पहल की। नरेन्द्र मोदी की शुरूआत भी ऐसी ही हुई थी। अब यह अलग बात है कि पाकिस्तान ने हर बार भारत को धोखा दिया। कांग्रेस ने मुस्लिम समुदाय को शाहबानो जैसे असंख्य प्रकरणों में कट्टरपंथी बनाने का ही काम किया, जबकि भाजपा ने इस समुदाय को तीन तलाक तथा हलाला जैसी रूढ़ियों से छुटकारा दिलाकर मुख्य धारा में उसकी सशक्त उपस्थिति सुनिश्चित करने का काम किया है। समस्या तब होती है, जब आप किसी देश-विरोधी गतिविधि के प्रतिकार को एक समुदाय के अपमान से जोड़ देते हैं। बड़ी परेशानी तब होती है, जब आपको आतंकवाद तथा अलगाववाद के खिलाफ उठी आवाज भी किसी वर्ग विशेष की मुसीबत का कारण लगने लगती है। इसलिए आप 'हिन्दू आतंकवाद' और 'भगवा आतंकवाद' जैसे शब्द गढ़ते हैं। दरअसल ये बहुत घृणित षड़यंत्र का हिस्सा है कि आप किसी गलत के विरोध में उठे स्वरों को एक समुदाय से जोड़ देते हैं। और ऐसा करने के लिए ये देश की महान सेना को भी बदनाम करने में पीछे नहीं रहते। मेरे विचार में भागवत ने जिस डीएनए की बात कही है, वह हिन्दुस्तानियत का मामला है। और ये तब से है, जब पराधीन भारत में कोई हिन्दू या मुस्लिम मोहल्ले वाला कांसेप्ट नहीं होता था। ये डीएनए तब भी शाश्वत रूप में था, जब आजादी की लड़ाई में अशफाक उल्ला खान से लेकर सीमान्त गांधी, मौलाना अबुल कलम आजाद, मौलाना हुसैन अहमद मदनी और इन जैसे अनगिनत मुस्लिम चेहरों ने हिन्दुओं के साथ मिलकर अंग्रेजों को चुनौती दी थी। ये ऐसा डीएनए ही तो था, जिसके असर से कोई यूसुफ मेहर अली ने राष्ट्रीय ध्वज की आकृति को उकेरा। किसी अब्दुल हमीद मसूदी ने युद्ध में पाकिस्तान के पैटन टैंकों को नष्ट करते हुए मादरे-वतन के लिए कुर्बानी दे दी। देश के लिए और देश के हित वाला ये जज्बा आज भी करोड़ों की संख्या में मौजूद है। किन्तु यदि चंद लोगों के गलत काम के खिलाफ उठे कदमों को एक पूरी कौम के विरुद्ध बताने पर तूल जाएंगे, तो फिर आप कभी भी इस डीएनए की हिन्दुस्तानी खूबसूरती को नहीं समझ सकते हैं। यह देश हर उस शख्स का है, जो इसे अपना मानता है। भागवत ने इसी सच को एक नयी परिभाषा देने का काम किया है, जो ओवैसी या दिग्विजय जैसी फितरत की अकल से ऊपर वाला मामला हो गया है।
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