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अभयजी: आत्मीयता की नींव पर पेशेवर पत्रकारिता का शिल्पकार

Updated on 25-03-2023 02:52 PM
अभय छजलानी के रूप में बीसवीं सदी की हिंदी पत्रकारिता का एक और दमकता सितारा अस्त हो गया। बल्कि यूं कहें कि अभयजी उन चुनिंदा पत्रकारों में थे, जिन्होंने न सिर्फ हिंदी बल्कि समूची पत्रकारिता के उस सुनहरे दौर को जिया, सींचा और आगे बढ़ाया, जो सही मायने में पत्रकारिता थी और जिसकी वजह से पत्रकारों को समाज में अलग हैसियत और विश्वसनीयता प्राप्त थी। एक संपूर्ण पत्रकार ( जिसमें लेखनी से लेकर अखबार के हर तंत्र का गहरा ज्ञान शामिल है), एक समाजसेवी, एक खेल सेवी, एक व्यवसायी और एक आत्मीय पारिवारिक मुखिया की भूमिका में अभयजी ने हर जगह अपनी छाप छोड़ी। वो और ‘नईदुनिया’ दोनो एक दूसरे का पर्याय बन चुके थे। यानी अभयजी का सुनहरा दौर ‘नईदुनिया’ का भी स्वर्ण काल था। जिसमें राजेन्द्र माथुर जैसे मूर्धन्य पत्रकार का सूर्य लंबे समय तक चमकता रहा और संध्या छाया के रूप में उसकी किरणें मेरे जैसे नईदुनिया के उत्तर काल में आए पत्रकारों ने भी महसूस की। 
यहां सवाल उठ सकता है कि आने वाला वक्त अभयजी को किस रूप में याद करेगा या उसे करना चाहिए। अभयजी उस पीढ़ी के पत्रकार थे, जो मालिक होकर भी पहले स्वयं पत्रकार थे और पत्रकारों का सम्मान करते थे। धंधे से ज्यादा पत्रकारीय मू्ल्यों की जिन्हें चिंता थी और इसके लिए वो जोखिम उठाने भी नहीं हिचकिचाते थे। पाठक तक सही और प्रामाणिक जानकारी पहुंचाना और वो भी शांति और सौहार्द के दायरे में। अभयजी ने इस बात का हमेशा ही ध्यान रखा। कई मामलों में निश्चित ही उनके अपने विचार और आग्रह होते थे, लेकिन अखबार में वो उस ढंग से परिलक्षित नहीं होते थे। यही कारण था कि वो अपने सामाजिक और पत्रकारीय दायित्वों के प्रति हमेशा सजग रहते थे। इंदौर में जब भी साम्प्रदायिक दंगा अथवा विघटनकारी घटनाएं हुईं, अभयजी ने निष्पक्ष और निर्भीक रिपोर्टिंग पर जोर दिया। साथ ही शहर में फिर से सौहार्द कायम करने में अखबार की जो रचनात्मक भूमिका होनी चाहिए, वो उन्होंने पूरे मन से अदा की। उनकी यह सोच नईदुनिया के मूल्यों और समूचे स्टाफ की कार्यशैली में भी परिलक्षित होती थी। यही नहीं प‍त्रकारिता या खेल से जुड़ा कोई भी रचनात्मक काम हो, अभयजी हमेशा उसे प्रोत्साहित करते थे। 
अभयजी के व्यक्तित्व का ‍िवकास और नईदुनिया अखबार की ख्याति का ‍िवस्तार लगभग समांतर ही हो रहे थे। उनका मानना था कि अखबार को केवल समाचार और विचार तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, उसे समाज को आगे ले जाने में भी अपनी सक्रिय भूमिका  निभानी चाहिए। इंदौर को ‘अभय प्रशाल’ के रूप में अनूठी खेल वास्तु अभयजी की इसी सोच और संकल्प की देन है। अभयजी की कला और संस्कृति में भी गहरी रूचि थी। वो प्रतिभाअोंका सम्मान करते थे। यह बौद्धिक चेतना और संस्कार उन्हें नईदुनिया के उस वातावरण के कारण भी ‍िमला था, जो उस समय की अनेक सितारा हस्तियों के हस्तक्षेप के कारण जगमगाता रहता था। अभयजी स्वयं प्रशिक्षित पत्रकार थे और लोकंतत्र में पत्रकारिता और पत्रकार की भूमिका से अच्छी तरह वाकिफ थे। 
लेकिन अभयजी की सबसे बड़ी देन नईदुनिया अखबार  में वो पारिवारिक माहौल कायम करना था, जहां मालिक और नौकर का भेद अपने न्यूनतम स्तर पर था। वो डांटते भी इशारो में थे, लेकिन सामने वाला उसे गहराई से महसूस करता था। वो काम करना भी जानते थे और काम लेना भी। वो भी सुकून के साथ। इससे उनके व्यक्तित्व की आभा द्विगुणित हो जाती थी। उनका किसी भी गुस्सा होना भी एक घटना होती थी। 
मुझ पर अभयजी का स्नेह खूब रहा। मेरी उनसे पहली मुलाकात अभयजी ( प्यार से उन्हें ‘अब्बूजी’ कहा जाता था) से नईदुनिया ( इंदौर) के लिए भर्ती किए जाने वाले प्रशिक्षु पत्रकारों के लिए हो रहे साक्षात्कार के दौरान हुई। इस साक्षात्कार में वो चुनिंदा युवा शामिल  थे, ‍जो इसके पहले ली गई कठिन लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण हुए थे। नईदुनिया के इंदौर स्थित मुख्‍यालय के एक कक्ष में हमे एक एक कर बुलाया जा रहा था। इंटरव्यू बोर्ड में पत्रकारिता के तीन दिग्गज बैठे थे। वो बीच में अभय छजलानी तो अखबार के प्रधान संपादक और मालिक थे, दोनो तरफ हिंदी पत्रकारिता के एक और नक्षत्र राहुल बारपुते ( जिन्हें हम बाबा कहते थे) तथा विद्वान पत्रकार डाॅ. रनवीर सक्सेना बैठे थे ( डाॅ.सक्सेना मूलत: अर्थशास्त्री थे, लेकिन अर्थशास्त्र समेत कई विषयों पर उनकी गहरी पकड़ थी। श्रद्धेय राजेन्द्र माथुरजी के ‘नवभारत टाइम्स’ जाने के बाद वो ही नईदुनिया में प्रतिदिन संपादकीय लिखते थे।)। करीब 15 मिनट के इंटरव्यू में यूं तो कई सवाल पूछे गए, लेकिन अभयजी ने मुझसे कहा कि तुम प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में नईदुनिया क्यों आना चाहते हो? ( इसका कारण यह था कि मैं ‘नईदुनिया’ में यदा-कदा छपता रहा था और उस वक्त इंदौर के साप्ताहिक ‘प्रभात किरण’ में उप संपादक के रूप में काम कर  रहा था)। अभयजी के कहने का आशय यह था ‍कि मेरे पास पत्रकारिता का अनुभव होते हुए भी मैं ट्रेनी क्यों बनना चाहता हूं? मैंने अपनी समझ से जवाब दिया कि भले ही मैं छोटे अखबारों में काम कर चुका हूं, लेकिन नईदुनिया जैसे बड़े और प्रतिष्ठित बैनर में मैं पत्रकारिता का ककहरा नए सिरे से सीखना  चाहता हूं, इसलिए। अभयजी ने मुझे कुछ हैरत भरी निगाहों से देखा। फिर हल्की से मुस्कान के साथ बोले- ठीक है। 
10 जनवरी1987 को मैं नईदुनिया का हिस्सा बन गया। पत्रकारिता प्रशिक्षुअोंकी पहली मीटिंग को अभयजी ने ही सम्बोधित किया। कहा कि नईदुनिया में काम करना एक विरल और शुभ अवसर है। इसने जो मानदंड कायम किए हैं और जिन मूल्यों को सहेजा है, आप लोग उसकी रक्षा करेंगे, यही अपेक्षा है। 
उसके बाद अभयजी से कई बार सामना होता रहा। उसका एक कारण यह था कि नईदुनिया की कार्य संस्कृति में ‘मालिक’ और ‘नौकर’ जैसा कोई भेद नहीं था। कई बार अगर टेलीप्रिंटर उप संपादक आने में ‍किसी कारण से लेट हो जाता था तो खुद अभयजी ही खबरों के टैग संपादित कर जारी करना शुरू कर देते थे ताकि समय जाया न हो। उप संपादक के ड्यूटी पर आते ही कह देते थे कि भई मैंने इतना हिस्सा जारी कर ‍िदया है, आगे तुम देख लेना। इतना सुनकर देरी से आने वाला उपसंपादक खुद ही शर्मिंदा महसूस करता था। 
अभयजी अपने सहयोगियो से पेशेवर बातचीत के अलावा पारिवारिक चर्चा भी अक्सर करते थे। आज की कैबिन संस्कृति में इसका महत्व शायद ही कोई समझेगा। मैंने अपना विवाह तय होने की सूचना जब अभयजी को दी तो उन्होंने मेरी भावी पत्नी के बारे में आत्मीयता से पूछताछ की। वो शादी में भी आए और बाद में भी पूछते रहे कि मुझे कोई परेशानी तो नहीं है। मैंने कहा कि सर एक ही ‍िदक्कत है। पत्नी जिस विभाग में नौकरी करती है, उसका दफ्‍तर केवल भोपाल में है। ऐसे में उसका तबादला इंदौर नहीं हो सकता। इस पर अभयजी ने एक क्षण सोचा फिर कहा कि ‘तुम ही भोपाल क्यों नहीं चले जाते। मैं बोल देता हूं। दोनो का एक जगह रहना सुखी परिवार की दृष्टि से जरूरी है। नेकी और पूछ पूछ। मैं तो यही चाहता था। हालांकि इंदौर से भी मुझे बहुत लगाव था। अभयजी ने सिर्फ कहा ही नहीं एक महीने बाद मेरा तबादला भी इंदौर से भोपाल कर ‍िदया। 
पत्रकार के रूप में सहयोगियों की क्षमता को जांचने का उनका अपना तरीका था। बतौर प्रशिक्षु इंदौर में उन्होंने मुझे शहर के सरकारी स्कूलों का सर्वे कर रिपोर्ट तैयार करने को कहा। तब मेरे पास साइकल ही थी। उसी पर सुबह से मैं निकल पड़ता था। करीब एक माह बाद मैंने 80 पेज की हस्तलिखित रिपोर्ट अभयजी को प्रस्तुत की। उन्होंने इतना ही कहा कि ठीक है। इस बीच उनके पास सारी जानकारी आ चुकी थी कि सर्वे के दौरान में किन स्कूलो में गया, किस से ‍िमला, कौन सी जानकारी एकत्र की। मुझे लगा कि शायद वो रिपोर्ट अखबार में छपेगी। वैसा कुछ नहीं हुआ। लेकिन एक माह बाद ही उन्होंने मुझे सिटी रिपोर्टर का दायित्व सौंप दिया। उसके पहले अोंकारेश्वर में तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमण का दौरा हुआ तो उसके कवरेज के लिए अभयजी ने मुझे ही भेजा, जबकि कई वरिष्ठ रिपोर्टर वहां जाना चाहते थे।   
मेरे भोपाल आने के बाद भी वो अक्सर पूछते रहते थे कि कोई दिक्कत तो नहीं है। कुछ काम होता तो सीधे फोन भी करते। एक बार वो भोपाल स्थित मेरे निवास पर भी आए। सहयोगियों के सुख दुख की खबर रखना, उसमें शामिल होना, उनकी आत्मीय कार्य शैली का अनिवार्य हिस्सा थी। यह एक ऐसा तत्व है, जो आज की कारपोरेट शैली की  पत्रकारिता में दुर्लभ होता जा रहा है। शायद वो मानते थे कि आत्मीयता की नींव पर ही पेशेवर पत्रकारिता की पक्की इमारत खड़ी हो सकती है। ‘नईदुनिया’ के रूप में वह हुई भी।
अजय बोकिल,-लेखक, संपादक

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