नई दिल्ली । देश की सर्वोच्च अदालत ने स्पष्ट किया है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण के दावा करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है और कोई भी अदालत राज्य सरकार को एससी/एसटी समुदाय को आरक्षण देने का आदेश नहीं दे सकता है। शीर्ष अदालत ने एक महत्वपूर्ण मामले में फैसला दिया कि यह राज्य सरकार के विवेक पर निर्भर है कि वह यह तय करे कि पदोन्नति में आरक्षण देना है या नहीं। अदालत ने कहा है कि प्रमोशन में आरक्षण देने को लेकर राज्यों पर कोई दायित्व नहीं है।
अदालत ने इसके साथ यह भी स्पष्ट किया कि जब राज्य सरकार आरक्षण देना चाहे तो सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व की कमी के बारे में डेटा एकत्र करने के लिए बाध्य है। जस्टिस एल नागेश्वर राव और हेमंत गुप्ता की पीठ ने शुक्रवार को कहा, 'राज्य सरकार आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। पदोन्नति में आरक्षण का दावा करने के लिए किसी व्यक्ति का कोई मौलिक अधिकार नहीं है। अदालत द्वारा आरक्षण देने के लिए राज्य सरकार को निर्देश देते हुए कोई भी आदेश जारी नहीं किया जा सकता है।' अदालत ने कहा कि एससी/एसटी के पक्ष में आरक्षण प्रदान करने के लिए अनुच्छेद 16 में प्रावधान हैं, जिस पर फैसला राज्य सरकार अपने विवेक से कर सकती है, लेकिन राज्य सरकार को सरकारी पदों पर नियुक्ति के लिए आरक्षण देने के लिए आदेश नहीं दिया जा सकता है। पीठ ने कहा 'प्रमोशन के मामलों में राज्य अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है।'
हालांकि अगर वे अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए इस तरह का प्रावधान चाहते हैं, तो राज्य को सार्वजनिक सेवाओं में उस वर्ग के प्रतिनिधित्व की कमी के संबंध में डेटा इकट्ठा करना होगा क्योंकि आरक्षण के खिलाफ पेश किए जाने पर ऐसे आंकड़े अदालत में रखने होंगे। इस मामले में दिया फैसला सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने उत्तराखंड सरकार के लोक निर्माण विभाग में सहायक अभियंता (सिविल) के पदों पर पदोन्नति में एससी और एसटी को आरक्षण से संबंधित मामलों की सुनवाई करते हुए यह फैसला दिया। इस मामले में उत्तराखंड सरकार ने आरक्षण नहीं देने का फैसला किया,जबकि हाईकोर्ट ने राज्य को एससी/एसटी के प्रतिनिधित्व के संबंध में पहले डेटा इकट्ठा करने और फिर कोई फैसला करने का निर्देश दिया। इसके साथ ही हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि सहायक अभियंता के पदों पर पदोन्नति द्वारा भरे जाने भविष्य के सभी रिक्त पद केवल एससी और एसटी के सदस्यों के होने चाहिए। अदालत ने हाईकोर्ट के दोनों फैसलों को अनुचित बताते हुए रद्द कर दिया है।