नक्षत्र - उत्तराषाढा रात्रि 07:13 तक तत्पश्चात श्रवण
योग - ध्रुव शाम 04:04 तक तत्पश्चात व्याघात
राहुकाल - दोपहर 01:56 से शाम 03:18 तक
सूर्योदय - 07:10 सूर्यास्त - 17:59
विशेष - तृतीया को पर्वल खाना शत्रुओं की वृद्धि करने वाला है।(ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्म खंडः 27.29-34)
स्फूर्तिदायक पेय
2 चम्मच मेथीदाना 200 मि.ली. पानी में रात को भिगोकर रखें। सुबह धीमी आँच पर चौथाई पानी शेष रहने तक उबालें। छानकर गुनगुना रहने पर 2 चम्मच शुद्ध शहद मिलाकर पियें। दिन भर शक्ति व स्फूर्ति बनी रहेगी।
शक्ति संवर्धक आहार
बाजरे के आटे में तिल मिलाकर बनायी गयी रोटी पुराने गुड़ व घी के साथ खाना, यह शक्ति-संवर्धन का उत्तम स्रोत है। 100 ग्राम बाजरे से 45 मि.ग्रा कैल्शियम, 5 मि.ग्रा. लौह व 361 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है। तिल व गुड़ में भी कैल्शियम व लौह प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
सकारात्मक ऊर्जा बढ़ाने के लिए
तुलसी की अथवा गाय की ९ बार प्रदक्षिणा करने से व्यक्ति की सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है ..ऐसे ही ओंकार जप से सकारात्मक ऊर्जा के साथ भगवत प्रीति भी बढ़ती है तुलसी और गौ का आभा मंडल 3 मीटर की दूरी तक फैला होता है वैज्ञानिक लेमों मूर्ति ने कहा है कि गौ, तुलसी, पीपल, सफ़ेद आंकड़ा, गोबर ये घनात्मक ऊर्जा देते हैं
नारी सौभाग्य मंत्र
किसी के घर में ज्यादा उपद्रव होता हो, ज्यादा अशांति होती हो और बहने बेचारी तंग आ गयी हों, तो एक नारी सौभाग्य कर्ण मंत्र आता है। बीज मंत्र हैं उसमें, 8 अक्षर हैं उसमें। 8 अक्षर में से 4 बार तो ॐ ही आता है। 4 अक्षर दूसरे हैं तो कितना सरल हो गया ।
ॐ ॐ ह्रीं ॐ क्रिम ह्रीं ॐ स्वाहा ।
और इसकी १० माला जपनी होती है सूर्य उगने से पहले । और सुहागन स्त्री को । पुरुष को नही जपना है ।
पूजा में प्रयोग होने वाले कुछ शब्द और उनका अर्थ?
1. पंचोपचार – गन्ध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने को ‘पंचोपचार’ कहते हैं |
2. पंचामृत – दूध , दही , घृत , मधु { शहद ] तथा शक्कर इनके मिश्रण को ‘पंचामृत’ कहते हैं |
3. पंचगव्य – गाय के दूध , घृत , मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में ‘पंचगव्य’ कहते हैं |
4. षोडशोपचार – आवाहन् , आसन , पाध्य , अर्घ्य , आचमन , स्नान , वस्त्र, अलंकार , सुगंध , पुष्प , धूप , दीप , नैवैध्य , अक्षत , ताम्बुल तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को ‘षोडशोपचार’ कहते हैं |
5. दशोपचार – पाध्य , अर्घ्य , आचमनीय , मधुपक्र , आचमन , गंध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने की विधि को ‘दशोपचार’ कहते हैं |
6. त्रिधातु – सोना , चांदी और लोहा |कुछ आचार्य सोना , चांदी, तांबा इनके मिश्रण को भी ‘त्रिधातु’ कहते हैं |
7. पंचधातु – सोना , चांदी , लोहा, तांबा और जस्ता |
8. अष्टधातु – सोना , चांदी , लोहा , तांबा , जस्ता , रांगा , कांसा और पारा |
9. नैवैध्य – खीर , मिष्ठान आदि मीठी वस्तुये |
10. नवग्रह – सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध, गुरु , शुक्र , शनि , राहु और केतु |
12. [A] अष्टगंध – अगर , तगर , गोरोचन, केसर , कस्तूरी , ,श्वेत चन्दन , लाल चन्दन और सिन्दूर [ देवपूजन हेतु ][B] अगर , लाल चन्दन , हल्दी , कुमकुम ,गोरोचन , जटामासी , शिलाजीत और कपूर [ देवी पूजन हेतु ]
13. गंधत्रय – सिन्दूर , हल्दी , कुमकुम |
14. पञ्चांग – किसी वनस्पति के पुष्प , पत्र , फल , छाल ,और जड़ |
15. दशांश – दसवां भाग |
16. सम्पुट – मिट्टी के दो शकोरों को एक-दुसरे के मुंह से मिला कर बंद करना |
17. भोजपत्र – एक वृक्ष की छाल | मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकडा लेना चाहिए , जो कटा-फटा न हो |
18. मन्त्र धारण – किसी भी मन्त्र को स्त्री पुरुष दोनों ही कंठ में धारण कर सकते हैं ,परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहें तो पुरुष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण करना चाहिए |
19. ताबीज – यह तांबे के बने हुए
बाजार में बहुतायत से मिलते हैं | ये गोल तथा चपटे दो आकारों में मिलते हैं | सोना , चांदी , त्रिधातु तथा अष्टधातु आदि के ताबीज बनवाये जा सकते हैं |
20. मुद्राएँ – हाथों की अँगुलियों को किसी विशेष स्तिथि में लेने कि क्रिया को ‘मुद्रा’ कहा जाता है | मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं |
21. स्नान – यह दो प्रकार का होता है | बाह्य तथा आतंरिक ,बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान जप द्वारा होता है 22. तर्पण – नदी , सरोवर ,आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर, हाथ की अंजुली द्वारा जल गिराने की क्रिया को ‘तर्पण’ कहा जाता है | जहाँ नदी , सरोवर आदि न हो ,वहां किसी पात्र में पानी भरकर भी ‘तर्पण’ की क्रिया संपन्न कर ली जाती है |
23. आचमन – हाथ में जल लेकर उसे अपने मुंह में डालने की क्रिया को आचमन कहते हैं |
24. करन्यास – अंगूठा , अंगुली , करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को ‘करन्यास’ कहा जाता है
25. हृद्याविन्यास – ह्रदय आदि अंगों को स्पर्श करते हुए मंत्रोच्चारण को ‘हृदय्विन्यास’ कहते हैं
26. अंगन्यास – ह्रदय , शिर , शिखा , कवच , नेत्र एवं करतल – इन 6 अंगों से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को ‘अंगन्यास’ कहते हैं |
27. अर्घ्य – शंख , अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्घ्य देना कहा जाता है |घड़ा या कलश में पानी भरकर रखने को अर्घ्य-स्थापन कहते हैं | अर्घ्य पात्र में दूध , तिल , कुशा के टुकड़े , सरसों , जौ , पुष्प , चावल एवं कुमकुम इन सबको डाला जाता है।
श्री रामचरितमानस का सार
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥
भावार्थ:-श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥ यह श्रीरामचरितमानस के शुरू में ही श्री तुलसीदास जी ने लिखा है| आओ इस को समझने का प्रयास करें|
एक जीव के मन में अनेको प्रकार के भाव उठते रहते हैं, कभी श्रद्धा का, कभी विश्वास का, कभी दया का, कभी क्रोध का, कभी परोपकार का, कभी अहंकार का, कभी काम का, कभी मोह का, कभी लोभ इत्यादि का| हर जीव इन अनेको भावो को महसूस करता है इसी कारण इसको विस्तार नहीं देते| यह सब भाव हर जीव केवल महसूस कर सकता है अगर हम जीव को किसी भी भाव को परिभाषित करने को कहें तो यह उस जीव के लिए अति कठिन कार्य होगा|
चूँकि यह भाव हर जीव में उठते है तो दूसरा जीव इन भावो के नाम लेते ही इसे महसूस करके इस जीव की बात को समझ तो जाता है परन्तु वह भी इसे व्यक्त नहीं कर पाता| मुझे श्री राम भगवान् में विश्वास है यह सब कहते हैं पर विश्वास के भाव को व्यक्त करके समझा नहीं सकते| किसी भी भाव को हम आकार देने में समर्थ नहीं हैं| अगर कोई जीव विश्वास के भाव को समझना चाहे तो हम केवल उसे विश्वास के मिलते जुलते शब्द ही दे सकते हैं, समझाने में कठिनाई अनुभव करेंगे| श्रीरामचरितमानस में मुख्य मुख्य भावो को आकार दिया है जिससे प्राणी यह जान सके की वह अपने अच्छे भावो को कैसे बल दे सके और निम्न भावो को ख़त्म कर सके।
श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की वंदना करता हूँ |
अथार्थ श्रद्धा एक भाव है जिसका कोई रूप अथवा आकार नहीं होता उस श्रद्धा को माँ पार्वती का और विश्वास भाव को श्री शंकरजी का रूप देकर संबोधित किया है| श्रद्धा की मूर्ति माँ पार्वती हैं और विश्वास की श्री शंकर भगवान्| कैलाश पर्वत पर शंकर भगवान् विराजमान हैं, कैलाश पर्वत अचल और अडिग है अत: विश्वास भी अचल और अडिग होना चाहिए| भगवान् राम को हम सर्वश्रेष्ठ भाव (सच्चिदानंद) का रूप मानते हैं, श्री तुलसीदास जी ने श्री राम जन्म से पहले शिव पार्वती का प्रसंग भी इसलिए लिखा की जब तक जीव के ह्रदय में श्रद्धा और विश्वास नहीं होगा वह ईश्वर श्रीराम को जो की सर्वश्रेष्ठ भाव का रूप हैं, ह्रदय में धारण नहीं कर पायेगा| अगर जीव को अपने अंत:करण में ईश्वर को लाना है तो पहले जीव के हृदय में श्रद्धा और विश्वास को लाना होगा|
आओ इसे और विस्तार दें :
भगवान् शिव और माँ सती श्री अगस्त्य जी के आश्रम में श्री राम कथा सुनने गए| वहां श्री अगस्त्य जी ने दोनों का पूजन अवम आदर सत्कार किया| भगवान् शिव ने सोचा की श्री अगस्त्य जी कितने महान होते हुए भी विनम्र हैं, वक्ता होते हुए भी श्रोता का सम्मान कर रहें हैं और माँ सती जी ने सोचा की जो हमारा ही पूजन करता हो वह हमें क्या राम कथा सुनाकर ज्ञान देगा अत: माँ सती का श्री राम कथा में ध्यान ना लगा | जब वापस आते हुए माँ सती ने श्री राम को पत्नी वियोग में रोते देखा, तथा शिवजी ने श्री राम को सच्चिदानंद परमधाम कहकर प्रणाम किया तो मन में संशय उत्पन्न हो गया| माँ सती प्रजापति दक्ष की कन्या है| दक्ष का भाव बुद्धि से है| एक व्यक्ति किसी कार्य में दक्ष है अर्थात वह बुद्धिमान है, तो माँ सती बुद्धि की पुत्री हुई और बुद्धि में संशय अवम तर्क-वितर्क का भाव रहता है| विश्वास भाव के साथ श्रद्धा होती है संशय अथवा तर्क-वितर्क कदापि नहीं| इसलिए विश्वास रूपी शिव ने बुद्धि की पुत्री का त्याग कर दिया| जब माँ सतीके ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ की योगाग्नि में अपने शरीर को भस्म किया तो ईश्वर से वर माँगा की अगले जन्म में भी मुझे श्री शिवजी ही पति मिलें तो ईश्वर ने पुछा की क्या पिता भी बुद्धि {दक्ष} चाहिए तो माँ सती ने कहा अबकी बार चाहे मुझे पत्थर के घर जन्म दे देना जो की जड़ होता है परन्तु बुद्धि [दक्ष} पिता नहीं चाहिए | क्योंकि बुद्धि चलाये मान होती है और पत्थर जड़ होता है| और माँ सती का जन्म पर्वत राज हिमालय के घर हुआ| और पर्वत के घर जन्म लेने से वह पार्वती कहलायीं| जब तक वह बुद्धि जो संशय और तर्क-वितर्क की थी श्रद्धा में परिवर्तित नहीं हुई, भगवान् शिव ने उसको नहीं अपनाया| माता पिता और सप्तऋषि ने चाहे कैसे भी इस श्रद्धा को विचलित करने का प्रयास किया हो यह श्रद्धा रूपी माँ पार्वती अडिग रही|
इसी प्रकार मेघनाथ काम का भाव है, कुम्भकरण {जिसके घड़े के समान कान है और जो सदा अपनी प्रसंशा सुनना चाहता है} वह अहंकार का भाव है, रावण को मोह का प्रतीक कहा गया है|
अथार्थ जीव का काम मर जाता है, अहंकार मर जाता है परन्तु मोह बड़ी ही कठिनाई से मरता है अत: श्री राम (सर्वश्रेष्ठ भाव ) को मोह को मारने में ही सबसे ज्यादा कठिन परिश्रम करना पड़ा| माता सीता को भक्ति,शक्ति और लक्ष्मी कहते हैं| श्री लक्ष्मण जी को वैराग्य, श्री भरतजी को धरम का सार और श्री शत्रुघनजी को अर्थ के भाव का रूप दिया गया है| श्री हनुमान जी को सेवा, श्री सुग्रीव जी को डर अवम बालीजी को पुन्यभिमान का रूप बताया गया है|
श्री रामचरितमानस का पाठ करने से हमारे ह्रदय में जब श्रीराम (सर्वश्रेष्ठ भाव) आ जाता है तो सारे दूषित भावो का नाश होता है और जीव को इस प्रकार भक्ति प्राप्त होती है|